Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
४७०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७१
प्रतिशङ्का-यदि ऐसा है तो संयम में भी सामाविक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराम और यथाख्यात इन पाँच प्रकार के विशेष संयमों के साथ और देश बिरति के साथ भी अवधिज्ञान की उत्पत्ति का व्यभिचार देखा जाता है, इसलिए अवधिज्ञान की उत्पत्ति संयम विशेष के निमित्त से होती है, यह भी तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्यग्दर्शन और संयम इन दोनों को अवधिज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त मानने पर आक्षेप और परिहार समान हैं ।
प्रतिशङ्का का उत्तर-प्रसंख्यात लोकप्रमाण संयमरूप परिणामों में कितने ही विशेष जाति के परिणाम अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारण होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं पाता है।
शङ्का का समाधान- यदि ऐसा है तो असंख्यात लोकप्रमाण सम्यग्दर्शन रूप परिणामों में दूसरे सहकारी कारगों की अपेक्षा से युक्त होते हुए कितने ही विशेष जाति के सम्यक्त्व रूप परिणाम (ही) अवधिज्ञान की उत्पत्ति में कारण हो जाते हैं, यह बात निश्चित हो जाती है।'
जिस अवधिज्ञान का करण | चिह्न जिन चिह्नों से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। जीव-शरीर का एकदेश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र के बिना शरीर के सब अवयवों से होता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। तीर्थकर, देवों और नारकियों के अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान ही होता है। क्योंकि वे शरीर के सब अवयवों द्वारा अपने विषयभूत अर्थ को ग्रहण करते हैं । कहा भी है
पोरइय-देत-तियोजिमजस्साशातिरं दे ।
जाएंति सम्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥२४॥ नारकी, देव और तीर्थकर अपने अवधिक्षेत्र के भीतर सर्वांग से जानते हैं और शेष जीव शरीर के एकदेश से जानते हैं । शेष जीव शरीर के एकदेश से ही जानते हैं। म नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमावधिज्ञानी और सर्वावधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीर के सब अवयवों से अपने विषयभूत अर्थ को ग्रहण करते हैं। इसलिए शेष जीव शरीर के एकदेश से और सर्वाग से जानते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
शङ्खा-अवधिज्ञान अनेकक्षेत्र ही होता है, क्योंकि सब जीवप्रदेशों के युगपत् क्षयोपशम को प्राप्त होने पर शरीर के एकदेश से ही बाह्य अर्थ का ज्ञान नहीं बन सकता?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्य देशों में करण-स्वरूपता नहीं है, अतएव करणस्वरूप से परिणत हुए शरीर के एकदेशा से ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं पाता। सकरण क्षयोपशम उसके बिना जानता है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस मान्यता का विरोध है। जीवप्रदेशों के एकदेश में ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर एकक्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है, ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उदय को प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशों को विषय करती है, इसलिए उमका देणस्थायिनी होकर जीव के एकदेश में ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। इससे अर्थात् उत्पत्ति करणों (चिह्नों) के पराधीन होने से अवधिज्ञान की प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अनेकक्षेत्र में उसके (करणों के) पराधीन न होने पर उसमें प्रत्यक्ष का
१. प.पु. १ पृ. ३६५-३६६1 २. ध.पु. १३ पृ. २६५।
३. प.पु. १३ पृ. २६५-२६६ ।