Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४७६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७७-३८३
इससे अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों का ग्रहण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे रूपी नहीं हैं। रूपोपने का प्रभाव भी उनमें द्रध्यत्व के अभाव से है ?
समाधान . . यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन पुद्गल पर्यायों के कथंचित् रूपी द्रव्यत्व सिद्ध है । "रूपिष्ववधेः"२ सूत्र द्वारा भी अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ कहा गया है। और "रूपिणः पुद्गलाः" ।।५।।* सूत्र द्वारा पुद्गल द्रव्य को रूपी कहा गया है। जीब अनादिकाल से कर्मबन्ध से बँधा हुआ होने के कारण मूर्त (रूपी) पने को प्राप्त है। इसलिए संसारी जीव भी अवधिज्ञान का विषय हो जाता है । सर्वावधि एकविकल्परूप है। उसमें जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्त विकल्प नहीं है ।
अवधिज्ञान के विषयभूत जघन्य प्रमाण पोकम्मुरालसंचं मज्झिमजोगज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाररादि अवरोही दध्यदो रिणयमा ॥३७७।। सुहमरिणगोदप्रपज्जत्तयस्त जादस्स तदियसमम्हि । अवरोगाहरणमारणं जहण्यं प्रोहिखेत्तं तु ॥३७८।। अवरोहिखेत्तदोहं वित्थारुस्सेहा रण जाणामो । अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहरणपमाणं तु ॥३७॥ अवरोगाहरणमाणं उस्सेहंगुल-असंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरं होदि हु तक्खेतसमकरणे ॥३०॥ अवरं तु प्रोहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा । सुहमोगाहणमारणं उरि पमाणं तु अंगुलयं ॥३८१॥ अवरोहिखेत्तमझे अवरोही अवरवन्धमवगमदि । तहवस्सवगाहो उस्सेहासंखघणपदरा ॥३२॥ प्रावलिप्रसंखभागं तीदविस्सं च कालयो प्रवरं।
प्रोही जाणादि भावे कालपसंखज्जभागं तु ॥३८३॥ गाथार्थ --मध्यम योग के द्वारा अजित, बिनसोपचय सहित नोकर्म औदारिक वगंगणाओं में लोक का भाग देने से प्राप्त द्रव्य को नियम से जघन्य अवधिज्ञान जानता है ।।३७७।। सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया की, उत्पन्न होने से तीसरे समय में जो जघन्य प्रवगाहना होती है, जितना उसका
१. प.पु. ६ पृ. ४४ । २. तत्त्वार्यसूत्र अ. १ सूत्र २७ । ३. तत्वार्थसूत्र अ. ५। ४, "अरणादि वंधरणवद्धतादो।" [ज.ध.पु. १५. २८५। ५. त. रा. वा. ६. "एल्थ जहणतकस्स तव्यतिरित्तवियप्पा रात्यि, सम्वोहीए एयवियप्पत्तादो।" [ध.पु. ६ पृ. ४८]।