Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४७८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३७७-३८३
देशावधि के विषय नहीं हैं, क्योंकि वे जघन्य के विषयभूत द्रव्यस्कन्ध के बाहर अवस्थित हैं ।
शङ्का - जघन्यवधि के विषयभूत उत्कृष्ट स्कन्ध का प्रमाण क्या है ?
समाधान - जघन्य प्रवधिक्षेत्र के भीतर जो पुद्गल स्कन्ध समाता है वह उसका उत्कृष्ट द्रव्य है। उससे एक, दो तीन आदि अनन्त परमाणु तक अपने उत्कृष्ट द्रव्य से सम्बद्ध होते हुए भी जघन्य ज्ञान के द्वारा जानने योग्य नहीं है। क्योंकि ये जघन्य अवधिज्ञान के उद्योत से वाह्यक्षेत्र में स्थित हैं ।
जघन्यदेशावधि का जघन्य क्षेत्र - उत्सेध बनांगुल में पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग का भाग देने पर एकभाग प्रमाण देशावधि का जघन्य क्षेत्र होता है ।"
शङ्का – यह कहाँ से जाना जाता है ?
समाधान - श्रोगाहणा णियमा दु सुहम-गिोद-जोवस्त । अद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो प्रोही ॥४॥
- से एक विद जी की जितनी जघन्य श्रवगाहना होती है, उतने क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधि है । अर्थात् एक उत्सेध घनांगुल को स्थापित कर उसमें पत्योपम के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो एक खण्डप्रमाण लब्ध प्राता है उतनी तीसरे समय में श्राहार को ग्रहण करने वाले और तीसरे समय में तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना होती है । जितनी यह श्रवगाहना होती है, उतने ही क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान होता है । "
शङ्का - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की प्रवगाहना की एक प्रकाशपंक्ति की भी अवगाहना संज्ञा है, इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान तत्प्रमाण क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जघन्य विशेषण से युक्त अवगाहना का निर्देश किया है। एक प्रकाशपंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि समुदाय रूप अर्थ में वाक्य की परिसमाप्ति इष्ट है। इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तिक जीव की श्रवगाहना में स्थित सब श्राकाशप्रदेशों का ग्रहण किया है।
शङ्का - यहां पर श्रवयवरूप अर्थ में वाक्य की परिसमाप्ति ग्रहण नहीं की गई है, यह किस प्रमाण से जानते हो ?
समाधान - प्राचार्य परम्परा से आए हुए अविरुद्ध उपदेश से जानते हैं ।
अतः जितनी जघन्य ग्रवगाहना होती है. क्षेत्र की अपेक्षा उतना जघन्य अवधिज्ञान है । यह सिद्ध होता है।
१. व. पु. ६ पृ. १५-१६ । २. घ. पु. ६ पृ. १६ध. पु. १३ पृ. ३०१ महाबंध पु. १ पृ. २१ । ३. ध. पु. १३ पृ. ३०१-३०२ ॥