Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाणा ३७२ हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र ।।५६।। इनमें से एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र का कथन गा. ३७१ की टीका में किया जाचका है अत: इन दो का कथन यहाँ पर नहीं किया जाएगा। देशावधि, परमावधि और मविधि का कथन आगे किया जाएगा।
यद्यपि गाथा में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान छह प्रकार का है. ऐसा निर्देश किया गया है तथापि गुणप्रत्यय शब्द से यहाँ पर सामान्य अवधिज्ञान ग्रहण करना चाहिए।
शङ्का-गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अनेक प्रकार का होता है, ऐसा क्यों न ग्रहण किया जावे ?
समाधान नहीं, क्योंकि भवप्रत्यय अबधिज्ञान में भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी भेद उपलब्ध होते हैं ।
कृष्णपक्ष के चन्द्रमण्डल के समान जो अबधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थान बिना निःशेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह होयमान अवधिज्ञान है। इसका देशावधि में अन्तर्भाव होता है, परमावधि और सर्वावधि में नहीं, क्योंकि परमावधि और सर्वावधि में हानि नहीं होती। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्ष के चन्द्र मण्डल के समान, प्रतिसमय अवस्थान के बिना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्प को प्राप्त होकर अगले समय में केवलज्ञान को उत्पन्न कर विनष्ट नहीं हो जाता तब तक बढ़ता ही रहता है वह वर्धमान अवधिशान है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधि में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि वह तीनों ही ज्ञानों का सहारा लेकर प्रवस्थित है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् घटता है और कदाचित् अबस्थित रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि व हानि के बिना दिनकरमण्डल के समान केवलझान के उत्पन्न होने तक अवस्थित रहता है वह अवस्थित श्रयधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीव के साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकार का है -क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षेत्र-भवानुगामी । उनमें से जो अवधिज्ञान एकक्षेत्र में उत्पन्न होकर स्वतः या परप्रयोग से जीव के स्वक्षेत्र या परक्षेत्र में विहार करने पर विनष्ट नहीं होता है वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीव के साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी अवधिज्ञान है । जो भरत, ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक, मनुष्य और तियेच भवों में भी साथ जाता है वह क्षेत्र-भवानुगामी अवधिज्ञान है । जो अननुगामी अवधिज्ञान है क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी। जो क्षेत्रान्तर में साथ नहीं जाता है, पर भवान्तर में साथ जाता है वह क्षेत्राननूगामी अवधिज्ञान है। जो भवान्तर में साथ नहीं जाता है, पर क्षेत्रान्तर में साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में साथ नहीं जाता, किन्तु एक ही क्षेत्र और भव के साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्र-भवामनुगामी अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। इसका पूर्वोक्त अवधिज्ञानमें प्रवेश नहीं होता है, क्योंकि हीयमान, वर्धमान, अनवस्थित, अवस्थित, अनुगामी और अननुगामी इन छहों ही
१. "तं च ग्रागेयविहं देसोही परमोही सम्वोही हायमाणयं वड्डमाणयं अवट्टिदं अणुगामी प्रगणुगामी सप्पडिदादी अप्पडियादी एयरखेत्तमरोयक्खेत ।। ५६।।" [घवल पु. १३ पृ. २६२] 1 . धवल पु १३ पृ. २६३-२६४ । ३. बिजनी की चमक की तरह बिनापाशील अवधि प्रतिपाती है। रा.वा. १/२२/४/पृ. ८२।