Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा ३७०
ज्ञानमागंगा/४६५ भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने का है। गाथा में पहले श्रत शब्द का प्रयोग किया है और बाद में केवलज्ञान शब्द है। इससे प्रतीत होता है कि दोनों में से कोई एक ही पूज्य नहीं है। इसका कारण यह है कि दोनों परस्पर हेतुब हैं। केवलज्ञान से श्रुत की उत्पत्ति होती है और श्रुत से केवलज्ञान की, बीज वृक्ष के समान ।
शङ्का-श्व तज्ञान सर्वतत्त्वों का प्रकाशक कैसे हो सकता है, क्योंकि सर्व पर्यायों को नहीं जानता है।
समाधान -थ तज्ञान द्रव्य की अपेक्षा सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा गया है, पर्याय की अपेक्षा नहीं।
प्रादि सप्ततत्त्वों का प्रकाशन केवलज्ञान के समान श्रतज्ञान भी करता है। केवली दसरों के लिये जीवादि तत्त्वों का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार आगम भी करता है। उनमें इतनी विशेषता है कि केवली अर्थों को प्रत्यक्ष जानता है और श्र तज्ञान परोक्ष रूप से जानता है। केवली कालिक द्रव्य की एक समय में होने वाली अनन्त पर्यायों को जानता है और श्र तज्ञानी उनमें से कुछ पर्यायों को जानता है। केवली भी दिव्यध्वनि के द्वारा सर्व पयायों का प्रांतपादन नहीं कर सकते, क्योंकि सर्व पर्यायें वचनों के अगोचर हैं। इसी प्रकार आगम में भी कुछ पर्यायों का कथन है। जो इन दोनों ज्ञानों का विषय नहीं हो, वह अवस्तु है।
॥इति श्रुतज्ञानम् ॥
अवधिज्ञान अव होयदि ति प्रोही सीमारणाणेत्ति वणियं समये ।
भव-गुरणपच्चयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं बेंति ॥३७०॥' गाथार्थ-विषय की अपेक्षा सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसीलिए पागम में इसे सीमाज्ञान कहा है। यह भवप्रत्यय और गुगप्रत्यय के द्वारा उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं ।।३७०॥
विशेषार्थ-"अवाग्धानात् अवधिः' जो अधोगत पुद्गल को अधिकता से ग्रहण करे वह अवधि है 13 अथवा अवधि, मर्यादा और सीमा ये शब्द एकार्थवाची हैं। अबधि से सहचरित ज्ञान भी अवधि कहलाता है।
शंका—अबधिज्ञान का इस प्रकार लक्षरण करने पर मर्यादारूप मतिज्ञान आदि अलक्ष्यों में यह लक्षण चला जाता है, इसलिए प्रतिव्याप्ति दोष प्राप्त होता है ?
समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि रूढ़ि की मुख्यता से किसी एक ही ज्ञान में अवधि शब्द की प्रवृत्ति होती है । मति व न तज्ञान परोक्ष हैं पर अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है, इसलिए भी भेद है।
१. 'मति अतयोनिबन्धी द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।''[त. सू. प्र. १ सूत्र २६]। २. प्रा. पं. सं. पृ. २६ गा, १२३, ध, पु. १ पृ. ३५६ गा, १८४ । ३. व.पु. १ पृ. १३ । ४. जयधवल पु. १ पृ. १६;थ, पु. ६ पृ. २५ ।