Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३६७-३६८
ज्ञानमार्गा /४६३
जाता है, न भविष्य में हता जा सकेगा और न भूतकाल में हता गया है वह अविहत-श्रुतज़ान है । प्रमोष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और बेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है। इससे सूत्रकण्ठों अर्थात् ब्राह्मणों की मिथ्यारूप ग्रन्थ कथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है। न्याय से युक्त है इसलिए श्रुतज्ञान न्याय्य कहलाता है । अथवा ज्ञेय का अनुसरण करने वाला होने से या न्याय रूप होने से सिद्धान्त को न्याय्य कहते हैं ।
वचन और अर्थगत दोषों से रहित होने के कारण सिद्धान्त का नाम शुद्ध है। इसके द्वारा जोवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात जाने जाते हैं, इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टिश्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं, इसलिए इसका नाम सम्यग्दष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है। जो लिग अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षण से उपलक्षित होकर साध्य का अबिनाभावी होता है, उसे हेतु कहा जाता है। वह हेतु दो प्रकार का है-साधनहेतु और दूषणहेतु । इनमें स्वपक्ष की सिद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ हेतु साधनहेतु और प्रतिपक्ष का खण्डन करने के लिए प्रयुक्त हुआ दूषण हेतु है। अथवा जो अर्थ और आत्मा का 'हिनोति' अर्थात् ज्ञान कराता है उस प्रमाणपंचक को हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके द्वारा 'उच्यते' अर्थात् कहा जाता है, वह श्रुतज्ञान हेतुवाद कहलाता है। ऐहिक और पारलौकिक फल को प्राप्त का उपाय नय है। उसका बाद प्रथात् कथन इस सिद्धान्त के द्वारा किया जाता है, इसलिए यह नयवाद कहलाता है।
स्वर्ग और अपवर्ग का मार्ग होने से रत्नत्रय का नाम प्रबर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिए इस आगम का नाम प्रवरवाद है। जिसके द्वारा मार्गण किया जाता है, वह मार्ग अर्थात् पथ कहलाता है। बह पांच प्रकार का है-नरकगतिमार्ग, तिर्यग्गतिमार्ग, मनुष्यगतिमार्ग, देवगतिमार्ग और मोक्षगतिमार्ग । उनमें से एक-एक मार्ग कृमि व कीट आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। ये मार्ग और मार्गाभास जिसके द्वारा कहे जाते हैं वह सिद्धान्त मार्गवाद कहलाता है । धुत दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इसका कथन जिस वचनकलाप के द्वारा किया जाता है, बह द्रव्यश्रुत श्रुतवाद कहलाता है । मस्करी, कणभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि मादि तथा उनके दर्शन जिसके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात् दूषित किये जाते हैं वह राद्धान्त (सिद्धान्त) परवाद कहलाता है। लौकिक शब्द का अर्थ लोक ही है ।
शंका -लोक किसे कहते हैं ? समाधान—जिसमें जीवादि पदार्थ देने जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं, उसे लोक कहते हैं ।
वह लोक तीन प्रकार का है अवलोक, मध्यम लोक और अधोलोक। जिसके द्वारा इस लोक का कथन किया जाता है, वह सिद्धान्त लौकिकवाद कहलाता है। लोकोत्तर पद का अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है। चारित्र से श्रुत प्रधान है, इसलिए उसकी अग्रप संज्ञा है।
शङ्का-चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण है ?
समाधान- क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है। अथवा, अग्रच शब्द का अर्थ मोक्ष है। उसके साहचर्य से श्रुत भी