Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६६
अग्रय कहलाता है। मार्ग, पथ और श्रुत ये एकार्थक नाम हैं। किसका मार्ग? मोक्ष का। ऐसा मानने पर "सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं।" इस कथन के साथ विरोध होगा, यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अविनाभावी द्वादशांग को मोक्षमागंरूप से स्वीकार किया है।
यथावस्थित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा अनुमृग्यन्ते' अर्थात् अन्वेषित किये जाते हैं वह श्रुतज्ञान यथानुमार्ग कहलाता है। लोक के समान अनादि होने से श्रुत पूर्व कहलाता है। यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये एकार्थवाची शब्द हैं। इसमें होने वाला श्रुतज्ञान या द्रव्यश्रुत पथानुपूर्व कहलाता है। सब पुरुष व्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान और द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। बहुत पूर्व वस्तुनों में यह श्रुतज्ञान अतीव पूर्व है, इसलिए श्रुतज्ञान पूर्वातिपूर्व कहलाता है ।
शङ्का-इसे अतिपूर्वता किस कारण से प्राप्त है ?
समाधान--क्योंकि प्रमाण के बिना शेर बस्तु-पूर्वो का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए इसे अतिपूर्व कहा है।
श्रुतज्ञान का माहात्म्य सुदकेवलं च गाणं वोणिवि सरिसारित होति बोहादो।
मुदस्सारणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गा ॥३६६॥ गायार्थ बोध अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा श्र तज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। श्रतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है ।।३६६।।
विशेषार्थ-'अक्ष' अर्थात् आत्मा से पर (भिन्न ) इन्द्रिय व प्रकाश प्रादि के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न हो बह परोक्ष है। इन्द्रिय, मन व प्रकाश आदि की सहायता के बिना प्रात्मा के द्वारा जो ज्ञान पदार्थों के विषय में उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। इसका विशद कथन पूर्व में किया जा चुका है।
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षारसाक्षाच झवस्त्वन्यतमं भवेत् ।।१०५॥' –सम्पुर्ण तत्त्वों के प्रकाशक स्याद्वाद और केवलज्ञान में प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद है। जो वस्तु दोनों ज्ञानों में से किसी भी ज्ञान का विषय नहीं होती है, वह प्रवस्तु है। यहाँ पर स्यावाद श्रुतज्ञान का पर्यायवाची है। श्रु तज्ञान और केवलज्ञान दोनों सम्पूर्ण प्रों को जानते हैं। उनमें अन्तर यही है कि श्र तज्ञान परोक्ष रूप से अथों को जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है । जो सम्पूर्ण श्रत का ज्ञाता हो जाता है, वह थ तकेवली है । अतकेवली थ तज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है। थुतकेवली में और केंबली में ज्ञान की अपेक्षा कोई भेद नहीं है,
१. अष्टसहली फ्लोक १०५ पृ. २८८ (नारायण सागर प्रेस, बम्बई)।