Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३६७-३६८
ज्ञानमार्गणा/४५६
निषिद्धिका प्रकीर्णक..-प्रमादजन्य दोषों के निराकरण करने को निषिद्धि वाहते हैं और इस निषिद्धि अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के प्रतिपादन करने वाले प्रकीर्णक को निषिद्धिका कहते हैं।' अथवा काल का आश्रय कर प्रायश्चित्त विधि और अन्य आचरण विधि की प्ररूपणा करता है।
श्रुतज्ञान के इकतालीस पर्यायवाची शब्द--
प्रावचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परम्पराल ब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रबचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचनसंनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, तत्व, भूत, भव्य, भविष्यत्, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय्य, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्नन्य, मार्ग, यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ; ये श्रुतज्ञान के पर्याय नाम हैं ॥५०॥
'बच्' धातु से वचन शब्द बना है। 'उच्यते भण्यते कथ्यते इति वचनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कहा जाता है वह बचन है। बचन पद से शब्दों का समुदाय लिया जाता है। प्रकृष्ट वचन को प्रवचन कहते हैं।
शङ्का-प्रकृष्टता कैसे है ?
समाधान–पूर्वापरविरोधादि दोष से रहित होने के कारण, निरवद्य अर्थ का कथन करने के कारण और बिसंवाद रहित होने के कारण प्रकृष्टता है ।
प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट शब्दकलाप में होने वाला ज्ञान या द्रव्यश्रुत प्रावचन कहलाता है। शङ्का--जबकि द्रव्यश्रुत वचनात्मक है तब उसकी थचन से ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है क्योंकि श्रुतसंज्ञा को प्राप्त हुई वचनरचना चूकि वचनों से कथंचित भिन्न है, अतएव उनसे उसकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं पाता । अथवा 'प्रवचनमेव प्राबचनम्' ऐसी व्युत्पत्ति का प्राश्रय करने से उक्त दोष नहीं पाता।
प्रअन्धपूर्वक जो वचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है, वह प्रवचनीय कहलाता है। शङ्का- इसका सर्वकाल किसलिए व्याख्यान करते हैं ?
समाधान—क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यातगुणी श्रेणी रूप से होनेवाली कर्मनिर्जरा का कारण है । कहा भी है -
सज्झायं कुवंतो पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य । होदि य एयागमणो विरणएण समाहिदो भिक्खू ॥२१॥
१. धवल पु. १ पृ. ६ । २. धवल
पु. ६ पृ. १९१ । ३. धवल पु. १३ पृ. २८० ।