Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४४८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ३६१-३६६
बारसविहं पुराणं जगदिद्ध अिणवरेहि सन्देहि । तं सव्यं वण्णेदि हु जिरगवंसे रायवंसे य॥७७।। पढमो अरहताणं विदियो पुण चकवट्टि-वंसो दु। विज्जहराणं तदियो चउत्थयो वासुदेवाणं ॥७॥ हाता-चसो तत् प्रजमो माहो व गणममणाणं । सत्तमप्रो कुरुवंसो प्रष्टुममो तह र हरिबंसो ॥७॥ एवमो य इक्खुयाणं समो विय कासियाण बोद्धय्यो।
वाईणेक्कारसमो बारसमो गाह-वंसो दु ॥०॥' -जिनेन्द्रदेव ने जगत् में बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण इंश और राजवंशों का वर्णन करते हैं। पहला अरिहन्त अर्थात तीर्थकरों का, दूसरा चक्रतियों का. तीसरा विद्याधरों का. चौथा नारायण-प्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चरणों का,
, छठा प्रज्ञाधमरणों का वंश है। सातवाँ कुरवश, पाठवाँ हरिवंग, नवाँ इक्ष्वाकुवंश, दसों काश्यपवंश, म्यारहवाँ वादियों का बंश पोर बारहवां नाथवंग है।७७-
दृष्टिवाद अंग का पूर्वगत नामका अर्थाधिकार पंचानवे करोड़ पचास लाख और पांच पदों द्वारा उत्पाद, व्यय और प्रौव्य आदि का वर्णन करता है।
जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता के भेद से चूलिका पाँच प्रकार की है। उनमें से जलगता चूलिका दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों द्वारा जल में गमन और जलस्तम्भन
भन के कारणाभत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्यारूप अतिशय आदि का बन करती है। स्थलगता चूलिका उतने ही २०१८६२०० पदों द्वारा पृथिवी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का तथा वास्तुविद्या और भूमि-सम्बन्धी दूसरे शुभअशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही २०६५६२०० पदों द्वारा (मायारूप) इन्द्रजाल आदि के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है । रूपगता अलिका उतने ही २०६८६२०० पदों द्वारा सिंह, घोड़ा और हरिणादि के स्वरूप के काररूप से परिणमन करने के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है । आकाशगता धूलिका उतने ही २०१८१२०० पदों द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है ।
इन पांचों ही चूलिकाओं के पदों का जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार पद है।
जो पूर्वो को प्राप्त हो अथवा जिसने पूर्वो के स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो उसे पूर्वगत कहते हैं। इस तरह 'पूर्वगत' यह गीण्यनाम है। वह अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वार की अपेक्षा संख्यात और अर्थ की अपेक्षा अनन्तप्रमाण है। तीनों वक्तब्यताओं में से यहाँ स्वसमयवक्तव्यता समझनी चाहिए । अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं । वे ये हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रबादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व सत्यप्रवादपूर्व, प्रात्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व,
१. ध. पु. १ पृ. ११२ ।