Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३६७-२६८
कप्पयवहारकप्पाकप्पियमहकप्पियं च पुंडरियं ।
महपुडरीयरिणसिहियमिदि चोद्दसमंगबाहिरयं ।।३६८।। गाथार्थ -अङ्गबाह्य श्रुत के चौदह भेद हैं—सामायिक, चतुर्विशस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुंडरीक, महापु'डरीक, निपिद्धिका ।।३६७-३६८।।
विशेषार्थ-अंगबा ह्य अर्थात् अनंगद्युत १४ प्रकार का है–सामायिक, चतुर्विशतिस्तब, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशबैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ।'
द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक के भेद से सामायिक चार प्रकार की है।
गामे ठवणा दवे खेत्ते काले व तहेव भावे य।
___सामाइम्हि एसो सिक्खेदो छविहरे पो ॥१७॥ [मूलाचार ७] अथवा नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक और भावसामायिक इन छह भेदों द्वारा समता भाव के विधान का वर्णन करना सामायिक है।' सचित्त और अचित्त द्रव्यों में राग और द्वेष का निरोध करना द्रव्य सामायिक है। ग्राम, नगर, खेट, कवंट, मंडव, पट्टन, द्रोणमुख और जनपद आदि में रागद्वेष का निरोध करना अथवा अपने निवासस्थान में साम्पराय (कषाय) का निरोध करना क्षेत्रसामायिक है। बसन्त आदि छह ऋतुविषयक कषाय का निरोध करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायों का निरोध कर दिया है, तथा मिथ्यात्व का वमन कर दिया है और जो नयों में निपुण है, ऐसे पुरुष को बाधारहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भाव सामायिक है। अथवा तीनों ही संध्याओं में या पक्ष और मास के सन्धि दिनों में, या अपने इच्छित्त समय में बाह्य और अन्तरङ्ग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है। सामायिक नामक प्रकीर्णक इस प्रकार काल का आश्रय करके और भरतादि क्षेत्र, संहनन तथा गुणस्थानों का आश्रय करके परिमित और
सामायिक की प्रहपणा करता है। मनष्यों-तिर्यचों आदि के शभ-प्रशभ नामों में रागद्वेष का निरोध करना नाम सामायिक है। सुन्दर स्थापना या असन्दर स्थापना में रागद्वेष का निरोध करना स्थापना सामायिक है। जैसे कुछ मूर्तियाँ सुस्थित होती हैं, सुप्रमाण तथा सर्व अवयवों से सम्पूर्ण होती हैं, तदाकाररूप तथा मन को पालाद करने वाली होती है तो कुछ मूर्तियाँ दुःस्थित प्रमाणरहित, सर्व अवयवों से परिपूर्णता रहित, अतदाकार भी होती हैं [मूर्तिनिर्माता के यहाँ दोनों ही प्रकार की जिनमूनियाँ देखी जा सकती हैं ] इनमें रागद्वेष का अभाव होना स्थापना सामायिक है।
चतुर्विशलिस्तव अर्थाधिकार उस-उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करने की
१. धवल पु. ६ ८. १७-१८८ । २. जयधवल पू.१ पृ. ६५। ३. धवल पु.१ पृ.६६। ४. जयधवल पु.१ प्र. 81-88 एवं नवीन संस्करण पृ. ६६-६०। ५. मूलाचार ७/१७ संस्कृत टीका एवं ज्ञानपीठ प्रकाशन का मूलाचार माग १ पृ. ३६३ से ३६५ ।