Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४५४/गो. सा. श्रीवकाण्ड
गाथा ३६७-३६८
तीर्थकर का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थकर को पुण्यरूप फल प्राप्त नहीं होता। तथा दान पूजा आदि प्रारम्भ के करनेवाले वचन, उन्हें कर्मबन्ध से लिप्त नहीं करते हैं।
संजद-धम्मकहा वि य उवासयाणं सवारसंतोसो।
तसवहविरई सिक्खामावरघादो ति सामुमदो ॥५५॥' -संयतासंयतों की धर्मकथा से स्वदारसन्तोष और प्रसवधविरति का उपदेश दिया गया है उससे स्थावरघात की अनुमति नहीं दी गई है। संयम के उपदेश द्वारा निवृत्ति ही इष्ट है, उससे फलित होने वाली प्रवृत्ति इष्ट नहीं है।
पावागमदाराई प्रणाइरूवट्टियाई जीवम्मि ।
तत्थ सुहासवदारं उग्घाईते कउ सदोसो ॥१७॥ -जीवों में पापासव के द्वार अनादिकाल से स्थित हैं, उनके रहते हुए जो जीव शुभास्त्रब के हा का उद्घाटन करता है
मामूटः कर्मों को करता है) वह सदोष कसे हो सकता है ? ॥२७॥
इसलिए चौबीसों तीर्थकर निरवद्य हैं और इसीलिए वे विबुधजनों द्वारा वन्दनीय हैं ।
यदि कोई ऐसी आशंका करे कि तीर्थकर मुरदुन्दुभि, ध्वजा, चमर, सिंहासन, धवल और निर्मल छत्र, भेरी, शंख तथा काहल (नगारा) आदि परिग्रह रूपी गुदड़ी के मध्य विद्यमान रहते हैं
और वे त्रिभुवन को अवलम्बन देने वाले हैं अर्थात् तीन लोक के सहारे हैं, इसलिए वे निरबद्य नहीं हैं; सो उसकी ऐसी आशंका भी ठीक नहीं है क्योंकि चार घाती कर्मों के प्रभाव से प्राप्त हुई नो केवललब्धियों से वे शोभित हैं। इस कारण उनका पाप के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता है । इत्यादिरूप से चतुर्विशति तीर्थकर विषयक दुर्नयों का निराकरण करके नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव के भेद से भिन्न २४ तीर्थंकरों के स्तवन के विधान का और उसके फल का कथन चतुविशतिस्तव करता
"चौबीसों तीर्थंकरों के गुणों के अनुसरण द्वारा उनके १००८ नामों का ग्रहण करना अर्थात् पाठ करना नामस्तव है। जो सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना में स्थापित है और जो बुद्धि के द्वारा तीर्थकरों से एकरव अर्थात अभेद को प्राप्त है अतएव तीर्थंकर के समस्त अनन्त गुणों को धारण करती हैं, ऐसी कृत्रिम तथा प्रकृत्रिम जिनप्रतिमानों के स्वरूप का अनुसरण करना अथवा उनका कीर्तन करना स्थापना-स्तव है ।
"जिनभवन का स्तवन जिनस्थापनास्तव अर्थात् मुर्ति में स्थापित जिनभगवान के स्तवन में अन्तर्भूत है, अतः उसका यहाँ पृथक् प्ररूपण नहीं किया है। जो विष, शस्त्र, अग्नि, पित्त, वात और कफ से उत्पन्न होनेवाली अशेष वेदनाओं से रहित हैं, जिन्होंने अपने प्रभामंडल के तेज से दशों दिशाओं
१. ज.ध.पु. १ पृ. १०५। २. ज.प.पु. १ पृ. १०६ । ३. ज.प.पु. १ पृ. १०८। ४. जयधवल पु. १ पृ. १०८/८४ ।