Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३६०-३६८
जानमामंगा/४५५
में बारह योजन तक अन्धकार को दूर कर दिया है, जो स्वस्तिक, अंकुश प्रादि चौंसठ लक्षणचिह्नों से व्याप्त हैं, जिनका शुभ संस्थान अर्थात् समचतुरस्र संस्थान और शुभ संहनन अर्थात् वज्रवषभनाराच संहनन है, सुरभि गंध से जिन्होंने विभवन को ग्रामोदित कर दिया है, जो रक्तनयन, कटाक्षरूप बाणों का छोड़ना, स्वेद, रज आदि विकार आदि से रहित हैं, जिनके नख और रोम योग्य
में स्थित हैं. जो क्षीरसागर के तट के तरंगयक्त जल के समान शुभ्र तथा सवर्णदंड से युक्त चौंसठ चामरों से सुशोभित हैं तथा जिनका वर्ण (रंग) शुभ है ऐसे चौबीसों तीर्थंकरों के शरीरों के स्वरूप का अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है। उन चौबीस जिनों के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अन्याबाध और विरागता आदि गुणों के अनुसरण करने की प्ररूपणा करना भावस्तव है।"
--एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है।'
शङ्का--एक जिन और एक जिनालय की वन्दना कर्मों का क्षय नहीं कर सकती है क्योंकि इससे शेष जिन और जिनालयों की प्रासादना होती है, इसलिए वह प्रासादना द्वारा उत्पन्न हुए अशुभ कर्मों के बन्धन का कारण है। तथा एक जिन या जिनालय की वन्दना करने वाले को मोक्ष या जैनत्व नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह पक्षपात से दूषित है । इसलिए उसके ज्ञान और चारित्र में कारण सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। अतएव एक जिन या जिनालय को नमस्कार करना नहीं बन सकता है?
समाधान-एक जिन या जिनालय की बन्दना करने से पक्षपात तो होता ही नहीं है, क्योंकि बन्दना करने वाले के 'मैं एक जिन या जिनालय की ही वन्दना करूंगा, अन्य की नहीं ऐसी प्रतिज्ञारूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा इससे वन्दना करने वाले ने शेष जिन और जिनालयों की नियम से बन्दना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख आदि के द्वारा अनन्त जिन एकत्व को प्राप्त हैं, अर्थात् अनन्त ज्ञानादि गुरण सभी में समानरूप से पाये जाते हैं, इसलिए उनमें इन गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, अतएव एक जिन या जिनालय की वन्दना करने से सभी जिन या जिनालयों की वन्दना हो जाती है। यद्यपि ऐसा है तो भी चविंशतिस्तव में वन्दना का अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय के एकत्व अर्थात् अभेद मानने में विरोध प्राता है। तथा सभी पक्षपात अशुभ कर्मबन्ध के हेतु हैं ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि जिनका मोह क्षीण हो गया है ऐसे जिन भगवान विषयक पक्षपात में अशुभ कर्मों के बन्ध की हेतुता नहीं पाई जाती है अर्थात् जिन भगवान का पक्ष स्वीकार करने से प्रशुभ कर्मों का बन्ध नहीं होता है। यदि कोई ऐसा अाग्रह करे कि एक जिन की वन्दना का जितना फल है, शेष जिनों की वन्दना का भी उतना ही फल होने से शेष जिनों की वन्दना करना सफल नहीं है। अत: शेष जिनों की बन्दना में अधिक फल नहीं पाया जाने के कारण एक जिन की ही वन्दना करनी चाहिए। अथवा अनन्त जिनों में छपस्थ के उपयोग की एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए भी एक जिन को बन्दना करनी चाहिए, सो इस प्रकार का यह एकान्त आग्रह भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार सर्वथा एकान्त का निश्चय करना दुर्नय है। इस तरह यहाँ जो प्रकार बताया है उसी प्रकार से विवाद का निराकरण करके बन्दनास्तव एक जिन की वन्दना की
१. जयघवल . १ पृ. ११०/८५ । २. जयब वल पु. १ पृ. १११/८६-८७ ।