Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
ज्ञानमारणा/४४१
तोबासयप्रझयणे अंतय. णुत्तरोववाददसे । पाहाणं वायरणे विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७॥ अट्ठारस छत्तीसं बादालं अडकडी अडवि छप्पण्णं । सत्तरि अट्ठावीसं चउदालं सोलससहस्सा ॥३५॥ इगिदुगपंचेयारं तिबीसदुतिरणउ दिलवल तुरियादी । चुलसीविलक्खमेया कोडी य विवागसूत्तम्हि ॥३५६।। वापरणनरनोनानं एयारंगे जुदी हु बादम्हि ।
कनजतजमताननम जनकनजयसीम बाहिरे वण्णा ॥३६०॥ गाथार्थ - अाचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, धर्मकथाङ्ग, उमासकाध्ययमाङ, अन्त:शाङ्ग, अनुत्तरौपपादिक्रदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण और विपाकसत्र, इन ग्यारह अङ्गों के पदों की संख्या कम से अठारह हजार, छत्तीस हजार, बयालीस हजार, एक लाख चौंसठ हजार, दो लाख अट्ठाईस हजार, पाँच लाख छप्पन हजार, ग्यारह लाख सत्तर हजार. तेईस लाख अट्ठाईस हजार, बानबे लाख चवालीस हजार, तिरानवे लाख सोलह हजार पद हैं। विपाकसूत्र में एक करोड़ चौरासी लाख पद हैं। इन पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार होता है (४१५०२०००)। बारहवें दृष्टिबाद अंग में सम्पूर्ण पद १ अरब ८ करोड़ ६८ लाख ५६ हजार ५ होते हैं। अङ्गबाह्य सम्बन्धी अक्षरों का प्रमाण पाठकरोड़, एक लाख, आठ हजार एक सौ पचहत्तर होता है ।।३५६-३६०।।
विशेषार्थ—अंगप्रविष्ट के अर्थाधिकार बारह प्रकार के हैं। वे ये हैं आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्राप्ति, नाथ वा ज्ञातृ धर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृद्दशा, अनुत्तरौपपादिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ।
प्राचारांग--- अठारह हजार पदों के द्वारा यह बतलाया गया है कि किस प्रकार चलना चाहिए? किस प्रकार खड़े रहना चाहिए, किस प्रकार बैठना चाहिए? किस प्रकार शयन करना चाहिए? किस प्रकार भोजन करना चाहिए? किस प्रकार संभाषण करना चाहिए? जिससे कि पाप का बन्ध न हो ?
कधं चरे कधं चिट्ट कधमासे कधं सए । कथं भुजेज्ज भासेक्स कथं पावंण बज्झवि ।।७०॥ जवं चरे जवं चिटु जदमासे जवं सए ।
जवं भुजेज भासेज्ज एवं पार्षण बज्झदि ॥७१।।' —यत्नपूर्वक चलना चाहिए, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिए, यत्नपूर्वक वैठना चाहिए, यत्नपूर्वक सोना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिए, इस प्रकार पापबन्ध नहीं होता।
१. प्र.पु. १ पृ. १६; पु. ६ पृ. १६७ व ज.ब.पु. १ पृ. १२२ ।