Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
४.०२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१८
तेसि च समासेहि य वीसविहं वा हु होदि सुदरगाणं । प्रावरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति ति ॥३१॥
गापार्थ-पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृत प्राभृत, प्राभृत वस्तु और पूर्व ये दस और दस इनके समास जैसे पर्यायसमास आदि, इस प्रकार श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं। श्रुतज्ञानावरण के भी इतने ही भेद होते हैं ।।३१७-३१८।।
विशेषार्थ—पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास, ये श्रुतजान के बीस भेद जानने चाहिए।
"समास" प्राब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए, अन्यथा श्रुतज्ञान के बीस भेद नहीं बन सकते।
अक्षर (अविनाशी) संज्ञक केवलज्ञान के अनन्त भाग प्रमाण लकयक्षर ज्ञान में सब जीवों का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्तगुरणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद लब्ध को लब्ध्यक्षरज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है ।
शङ्का---पर्याय किसका नाम है ? समाधान -- ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों के प्रक्षेप (मिलाने) का नाम पर्याय है।
पर्यायज्ञान में सब जीबराशि का (अनन्त का) भाग देने पर जो लब्ध प्रावे, उसको उसी पर्यायज्ञान में मिला देने पर पर्यायस मासज्ञान उत्पन्न होता है। (पर्यायज्ञान में अनन्तभाग वृद्धि के होने पर) पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है। पुनः इसके ऊपर षट्स्थानपतित वृद्धियों के द्वारा असंख्यात लोकमात्र पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पर्यायसमासज्ञान असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होते हैं, परन्तु पर्यायज्ञान एक प्रकार का ही होता है। प्रक्षेपों का समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है, उन ज्ञानस्थानों की पर्याय-समास संज्ञा है, परन्तु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है, उस ज्ञान की पर्याय संज्ञा है। पर्यायसमास ज्ञानों को अक्षरज्ञान के पूर्ण होने तक ले जाना चाहिए। अक्षरज्ञान के आगे उत्तरोत्तर एक-एक अक्षर की वृद्धि से जाने वाले ज्ञानों को अक्षरसमास संज्ञा है। यहाँ अक्षरज्ञान से आगे छह द्धियाँ नहीं हैं, किन्तु दुगुणे-तिगुरणे इत्यादि ऋम से अक्षरवद्धि ही होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु कितने ही प्राचार्य अक्षर-ज्ञान से लेकर आगे सब जगह क्षयोपशम ज्ञान के छह प्रकार की वृद्धि होती है, ऐसा कहते हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्षरज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियाँ संभव नहीं हैं।
१. धवल पु.१३ पृ. २६० पर गाथा न. १ इस प्रकार है-"पज्जय-मस्वर-पद-संघादय पडिबत्ति-जोगदाराई। पाहुए पाहुड-वत्थू गुल्बसमासा य बोखम्वा ॥१॥” २. घबल पु. १३ पृ. २६२ । ३. प.पु. १३ पृ. २६३-२६४ । ४. ध.पु. १२ पृ. ४.७६-४८० व पु. ६ पृ. २२-२३ ।