Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३३२
जानमार्गशा/४१५
पायाम की ग्रोर से पाठ खण्ड करके विष्कम्भ के ऊपर जोड़ देने पर चार खण्ड विष्कम्भ और पाँच खण्ड पायाम युक्त क्षेत्र होता है ४ ५। इसको पाँच खण्ड बिष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र के मिर के ऊपर स्थापित करने पर पाँच खण्ड विष्कम्भ और पैतालीस खण्ड अायाम युक्त क्षेत्र होता है ५४५। इसके तीन खण्ड करके एक खण्ड के विष्कम्भ के ऊपर मेष दो खण्डों के विष्कम्भ को जोड़ देने पर विष्कम्भ और आयाम से पन्द्रह खण्ड मात्र समचतुष्कोण क्षेत्र होता है १५ १५। इसको ग्रहण कर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और इकतालीस खण्ड आयाम युक्त क्षेत्र के सिर पर स्थापित करने पर पन्द्रह खण्ड विष्कम्भ और छप्पन खण्ड पायाम युक्त क्षेत्र होता है १५५ । आयाम के छप्पन खण्डों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुल होने हैं। उत्कृष्ट संख्यात मात्र पिशुलों से भी एक सवाल प्रक्षेप होता है क्योंकि एक सकल प्रक्षेप को उत्कृष्ट संख्यात' से खण्डित करने पर एक विशाल पाया जाता है। इसलिए इसमें पन्द्रह खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। इन सकल प्रक्षेपों को इकतालीस खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों में मिलाने पर छप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । वे सब मिलकर एक जघन्यस्थान होता है, क्योंकि ठप्पन खण्ड मात्र सकल प्रक्षेपों द्वारा उत्कृष्ट संख्यात मात्र सकल प्रक्षेप उत्पन्न होते हैं।
शङ्का--उत्कृष्ट संख्यान मात्र प्रक्षेपों से जघन्य स्थान होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-उसका कारण यह है कि जघन्य स्थान में उत्कृष्ट संख्यात का भाग देने पर उसमें से जो एक भाग प्राप्त होता है, उसको सकल प्रक्षेप स्वीकार किया गया है।
इस जघन्य स्थान को भूल के जघन्य स्थान में मिलाने पर दुगुणी वृद्धि होती है। फिर एक खण्ड के अर्धभाग विष्कम्भ और एक खण्ड' पायाम रूप पूर्व में अपनीत करके स्थापित क्षेत्र की ओर से छप्पन खण्ड करके एक खण्ड के ऊपर शेष खण्डों के स्थापित करने पर एक खण्ड को एक मौ बारह से खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड मात्र सकन्न प्रक्षेप होते हैं। ये सकल प्रक्षेप और शेष पिशुलापिशुल अधिक होते हैं। यह प्ररूपणा भी स्थूल ही है।
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का कथन करने की प्रतिज्ञा एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हयंति छाहरणा । ते पज्जायसमासा अक्खरगं उरि वोच्छामि ॥३३२॥
गाथार्थ-इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण घटस्थान अनक्षरात्मक श्रुनज्ञान पर्यायसमास है। इनका कथन करके अब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का कथन करता हूँ ॥३३२।।
विशेषार्थ--अक्षर के तीन भेद -लध्यक्षर, निर्वतयक्षर, संस्थान अक्षर। सूक्ष्म निगोद लन्ध्यपर्याप्नक से लेकर श्रुतकेवली तक जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जीवों के मुख से निकले हुए प्राब्द को निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। उस नित्यक्षर ने व्यक्त और अव्यक्त ये दो भेद हैं। उनमें से व्यक्त नित्यक्षर संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है। अध्यक्त नित्यक्षर दोन्द्रिय से लेकर संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तक जीवों के होता है। संस्थानाक्षर