Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४२०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३३८-३३६
समाधान - नहीं होती, क्योंकि अक्षरज्ञान सकलथवज्ञान के संख्यातवें भाग प्रमाण होता है। उसके उत्पन्न होने पर संख्यात भाग वृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ही होती है। छह प्रकार की वृद्धियाँ नहीं होती, क्योंकि एक अक्षररूप ज्ञान के द्वारा जिसे बल की प्राप्ति हुई है उसके छह प्रकार की वृद्धि के मानने में विरोध आता है।'
संख्यात पदों के द्वारा संघात नामक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। चारों गतियों के द्वारा मार्गणा होती है। उनमें जितने पदों के द्वारा नरकगति की एक पृथिबी निरूपित की जाती है उतने पदों की
और उनसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान की 'संघात' ऐसी संज्ञा होती है। इसी प्रकार सर्व गतियों का और सर्व मार्गणाओं का प्राश्रय करके कहना चाहिए। प्रतिपत्ति के जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक-एक अधिकार की संघात संज्ञा है । ३
प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान एक्कदरगविरिणरूवयसंघादसुदादु उपरि पुव्वं वा ।
वणे संखेज्जे संघादे उड्ढम्हि पडिवत्ती ।।३३८॥
थार्थपरक शिका निरूपण करने वाले संघात श्रुतज्ञान के ऊपर पूर्व के समान एक-एक अक्षर की क्रम से वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार संघात की वृद्धि हो जाय, तब एक प्रतिपत्तिनामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३८।।
विशेषार्थ-संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर-अमित श्रुतज्ञान के बढ़ने पर संघातसमास नामक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार संघात-समास नामक श्रुतज्ञान तब तक बढ़ता हुआ जाता है जब तक कि एक अक्षर श्रुतज्ञान से कम प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ पर भी संघात के प्रतीत होने पर बह भी संधात है, ऐसा समझकर संघात-समास वन जाता है। जितने पदों के द्वारा एक गति, इन्द्रिय, काय और योगादि मार्गणा प्ररूपित की जाती है, उतने पदों की प्रतिपत्ति यह संज्ञा है ।६ अनुयोगद्वार के जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक-एक अधिकार की प्रतिपत्ति संज्ञा है। संख्यात संघात श्रुतज्ञानों का प्राश्रय कर एक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता हैं।'
अनुयोग ध्रुतशान चउगइसरूवरूवयपरिवत्तीदो दु उबरि पुव्यं वा ।
वण्णे संखेज्जे पडियत्तीउढम्हि परिणयोगं ॥३३६।। गाथार्थ-चारों गतियों के स्वरूप का निरूपण करने वाले प्रतिपत्ति ज्ञान के ऊपर पूर्व के. सदृश एक-एक अक्षर की कम से वृद्धि होते-होते जब संख्यात प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाती है तब एक अनुयोग श्रुतज्ञान होता है ।। ३३६।।
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१. धवल पु. १३ पृ. २६५। २. धवल पु. ६ पृ. २३ । ३. धवल पु. १३. २१६ । ४. धवल पु. ६ पृ. २३-२४ । ५. धवल पू. १३ पृ. २६६ । ६. धवल पु. ६ पृ. २४ । ७. एबल पु. १३ पृ. २६९ ।