Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३३७
ज्ञानमार्गणा/४१६
षोडशशसं चतुस्त्रिशतकोटीनां त्र्यशीतिमेव लक्षाणि । शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति च पववर्णान् ॥६॥' सोलससदयोतीस कोडी सेसीवि चेव लक्खाई सससहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ सोलहसयचौतीसं फोडीयो तियप्रसीदिलवस्वं च।
सत्तसहस्सट्ठसवं प्रछासीदी य पदवण्णा ॥३७॥' सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी बाम गार गार साल नौ सदली इतने वर्ण (अक्षर) एक मध्यम पद के होते हैं। इतने अक्षरों को ग्रहणकर एक मध्यम पद होता है। यह मध्यम पद भी संयोगी अक्षरों की संख्या की अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि उसमें उक्त प्रमाण से अक्षरों की अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। इन पदों में संयोगी अक्षर ही समान हैं, संयोगी अक्षरों के अवय व अक्षर नहीं, क्योंकि उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है । इस मध्यमपद के द्वारा पूर्व और अंगों के पदों की संख्या का प्ररूपण किया जाता है ।
संघात श्रुतज्ञान एयपवादो उरि एगेगेणक्खरेण बडढतो।
संखेज्जसहस्सपदे उड्ढे संघावरणाम सुवं ॥३३७॥ गाथार्थ-इस एक मध्यम पद के ऊपर भी एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाने पर संघात नामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३७॥
विशेषार्थ-इस पदनामक श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर-प्रमित श्रुतज्ञान के बढ़ने पर पदसमास नामक श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षर अादि के क्रम से पदसमास नामका श्रुत बढ़ता हुया तब तक जाता है जब तक कि संघात नामका श्रुतज्ञान प्राप्त होता है।
शङ्का–पद के ऊपर अन्य एक पद के बढ़ने पर पदसमास श्रुतज्ञान होता है, ऐसा न कहकर पद के ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर पदसमास श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों कहा गया है जबकि अक्षरपद नहीं हो सकता ?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पद के अवयवभुत अक्षर को भी पद संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं पाता। अवयव में अवयवी का व्यवहार अप्रसिद्ध है, यह बात भी नहीं है; क्योंकि 'वस्त्र जल गया, गाँव जल गया' इत्यादि उदाहरणों में वस्त्र या गांव के एक अवयव में ही अवयवी का व्यवहार पाया जाता है ।
शङ्का- अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर छह प्रकार की वृद्धि द्वारा श्रुतज्ञान की षट्म्थान पतित वृद्धि क्यों नहीं होती?
१. घबल पु. ६ पृ. १६५। २. प. पु. १३ पृ. २६६ । ३. जयधवल पु. १ पृ. ६२। ४. प. पु. १३ पृ.१६६ । ५. घ. 'पृ. १३ पृ. २६७। ६. जयधवल पु. १.१२। ५. घ. पु ६ पृ. २३ । ७. प. पु. १३ पृ. २६७ ।