Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३३५
ज्ञानमार्गणा/४१७
गाथार्थ-अनभिलाप्य पदार्थों (जो पदार्थ शब्दों द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं) के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय (प्रतिपादन करने योग्य) पदार्थ है। प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवभाग प्रमाण श्रुत-निबद्ध पदार्थ हैं ।। ३३४।।
विशेषार्थ- दा गाथा में कालमा नमार अनातभाग पदार्थ अनभिलाप्य हैं, जिनका ज्ञान बिना उपदेश के होता है । श्रुतज्ञान उपदेशपूर्वक ही होता है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
शङ्खा --श्रुतज्ञान व केवलज्ञान दोनों सदृश हैं। ऐसा कहा जाता है, वह ठीक नहीं है क्योंकि इस गाथा में कहा गया है कि श्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ नहीं है, किन्तु प्रज्ञापनीय पदार्थों का अनन्तवाँ भाग है।
समाधान-समस्त पदार्थों का अनन्तवा भाग द्रव्य श्रुतज्ञान का विषय भले ही हो, किन्तु भावश्रुतज्ञान का विषय समस्त पदार्थ हैं। क्योंकि ऐसा मानने के बिना तीर्थंकरों के वचनातिशय के प्रभाव का प्रसंग होगा ।
शङ्का-पूर्णश्रुत कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनुक्तावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के द्वारा वह उत्पन्न हो सकता है।
इस गाथा में द्रव्यश्रुत का प्रमाण बतलाया गया है। भावश्रुत की अपेक्षा इस गाथा की रचना नहीं हुई है । भावश्रुत की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान सदृश हैं ।
अक्षरसमासज्ञान तथा पदज्ञान का स्वरूप एयक्खरादु उरि एगेगेरणक्खरेण बढतो ।
संखेज्जे खलु उड्ढे पदणाम होदि सुदरगाणं ॥३३५।। गाथार्थ -एक अक्षरज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात अक्षरों की वृद्धि हो जाय तब पद नामक श्रुतज्ञान होता है ।।३३५।।
विशेषार्थ--अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की ही वृद्धि होती है, अन्य वृद्धियों नहीं होती हैं, इस प्रकार प्राचार्य परम्परागत उपदेश पाया जाता है। कितने ही प्राचार्य ऐसा कहते हैं कि अक्षर श्रुतज्ञान भी छह प्रकार की वृद्धि से बढ़ता है, किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान के संख्यातवें भागरूप अक्ष रज्ञान से ऊपर छह प्रकार की वृद्धियों का होना सम्भव नहीं है।
अक्षरशुतज्ञान से ऊपर और पदश्रुतज्ञान से अधस्तन श्रुतज्ञान के संख्यात विकल्पों की 'अक्षर
१. "सुदकेवले च गाणं दोण्ािवि सरिसागि होति" गो. जी. गा. ३६६]। २. बदल पु. ६ पृ. ५७ । ३. धवल पु. १२ पृ. १७१ । ४. घबल पु. ६ पृ. २२-२३ ।