Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४३०/गो, सा. जीवकाण्ड
माथा ३५२-३५४
त्रिसंयोग से छठा अक्षर होता है ६ । पुनः द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के विसंयोग से सातवाँ अक्षर होता है । पुनः प्रथम द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के चतुःसंयोग से पाठवाँ अक्षर होता है । इस प्रकार चौथे अक्षर के पाठ भंग होते हैं । अब पूर्वोक्त भंगों के साथ चतुर्थ अक्षर के भंगों के लाने पर चार अङ्कों का विरलन और विरलितराशि के प्रत्येक एक को द्विगुणित कर परस्पर गुणित करने पर ( १,२,१)सोलह (१६) भंग होते हैं। एक कम करने पर चार अक्षरों के एकसंयोग, द्विसंयोग, त्रिसंयोग और चतुर्थसंयोग रूप अक्षरों के भंग (१६-१) पन्द्रह (१५) होते हैं।' यहाँ इनके उस्चारण का क्रम कहते हैं । यथाप्रकार का एकसंयोग से एक अक्षर होता है १ । आकार का भी एकसंयोग से दूसरा अक्षर होता है। प्राकार३ का भी एकसंयोग से तीसरा अक्षर होता है ३ । इकार का एकसंयोग से चौथा अक्षर होता है ४ । पुनः अकार और प्राकार के द्विसंयोग से पांच अक्षर होता है ५। पुनः प्रकार और प्रा३कार के द्विसंयोग से छठा अक्षर होता है । पुनः प्रकार और इकार के द्विसंयोग से सातवाँ अक्षर होता है ७। पुनः आकार और आकार के हिसंयोग से प्राठवाँ अक्षर होता है । पुनः श्राकार और हकार के द्विसंयोग से नौवों अक्षर उत्पन्न होता है। पुनः प्रा३कार और इकार के द्विसंयोग से दसवाँ अक्षर होता है। पुन: प्रकार, प्राकार और पा३कार के त्रिसंयोग से ग्यारहवां अक्षर होता है ११ । पुनः प्रकार, आकार और इकार के त्रिसंयोग से बारहवाँ अक्षर होता है १२ । पुनः प्रकार, प्रा३कार और इकार के त्रिसंयोग से तेरहवाँ अक्षर होता है १३ । पुनः प्राकार, आकार और इकार के त्रिसंयोग से चौदहवाँ अक्षर होता है १४ । पुनः प्रकार, प्राकार, आकार और इकार के चार संयोग से पन्द्रहवां अक्षर होता है १५ ! इस प्रकार नार पक्षों से एक, दो, तीन और चार संयोग से पन्द्रह अक्षर उत्पन्न होते हैं। यहाँ पन्द्रह ही श्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं और तदावरण के विकल्प भी उतने ही होते हैं। यत: इस विधि से अक्षर उत्पन्न होते हैं अतः अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्वत्र एक अंक से कम करनी चाहिए। इस विधि से शेष अक्षरों का कथन समझना चाहिए। इस विधि से चौंसठ अक्षरों के १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ इतने मात्र संयोग अक्षर उत्पन्न होते हैं तथा उनसे इतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं । अथवा
एकोत्तरपदवृद्धो रूपायर्भाजितश्च पवद्धः।
गच्छः संपातफलं समाहतः सन्निपातफलम् ॥' --एक से लेकर एक-एक बढ़ाते हुए पद प्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्त में स्थापित एक से लेकर पद प्रमाण बढ़ी हुई संख्या का भाग दो। इस क्रिया के करने से सम्पात फल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है। उस सम्पातफल अर्थात् एकसंयोगी भंग को प्रेसठ बटे दो (६३) आदि से गुणा कर देने पर सन्निपातफल (=द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग) प्राप्त होता है ।
इस करणगाथा के द्वारा सब संयोगाक्षरों के और श्रुतज्ञान के विकल्प उत्पन्न होते हैं। यथा -
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- - - - - - - - - - - - - ६४ ६३ ६२ ६१ ६. ५६ ५८ ५७ ५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४६
१. घ. पु. १३ पृ. २५२-२५३ । २. ध. पु. १३ पृ. २५४ । पु. १२.१६२, जयघवल पु.२ पृ. ३००।
३. ध, पु. १३ गा. १४ व पु. ५ पृ. १६३ व