Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ३५२-३५४
ज्ञानमार्गणा/४२७ गायार्थ—पाठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रकीर्णक के अक्षरों का प्रमाण है ।।३५१॥
विशेषार्थ-समस्त संयोगी अक्षरों का प्रमाण १८४४६७४४०७३७० ६५५१६१५ इस अक्षरसंख्या को पदअक्षरसंख्या १६३४८३०७८८८ से भाग देने पर १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५-१६३४८३०७८८=११२८३५८००५ भाज्यफल और ८०१०८१७५ अक्षर शेष रहते हैं । जो एक पद की अक्षर संख्या से न्युन है। इन अक्षरों के द्वारा अङ्गबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की रचना होती है। इनका कथन आगे गाथा ३६७-३६८ में किया जाएगा।
समस्त प्रक्षरों का प्रमाण प्राप्त करने की विधि तेत्तीस वेंजरगाइं सत्तावीसा सरा तहा भरिगया । चत्तारि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाप्रो ॥३५२॥' चउसद्धिपतं हितलिय बुरा न वारण अंगुणं किन्चा । रुऊरणं च कए पुरण सुवरणारणस्सक्खरा होंति ॥३५३॥ एकठु च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता।
सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥३५४॥ ___गाथार्य-ततीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर तथा चार योगवाह ये सब (३३+२७+ ४) ६४ मूल वर्ण (मूल अक्षर) कहे गये हैं ।।३५२।। इन चौंसठ अक्षरों का विरलन कर और प्रत्येक के ऊपर दो को देकर परस्पर गुणा करके एक घटाने पर श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण होता है ।।३५३।। वे अक्षर एक पाठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नव पाँच पाँच एक छह एक पात्र हैं ।।३५४।।
विशेषार्थ-वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और उमाक्षर चार इस प्रकार तेंतीस (३३) ध्यंजन होते हैं। अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, औ ये नौ स्वर होते हैं। इनमें से प्रत्येक हस्व, दीर्घ
और प्लुत के भेद से स्वर सत्ताईस (२७) होते हैं । अयोगवाह अं अः क और पये चार ही अयोगवाह होते हैं। इस प्रकार सब अक्षर (२७+३३ + ४) ६४ होते हैं ।
एकमात्रो भवेदप्रस्थो विमात्रो वीर्घ उच्यते।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं स्वर्द्ध मात्रकम् ॥१२॥ एक मात्रा वाला वर्ण ह्रस्व, दो मात्रा वाला दीर्घ, तीन मात्रा वाला प्लुत जानना चाहिए। और व्यं जन अर्ध मात्रा वाला होता है ।।१२। इन चौंसठ अक्षरों के संयोगाक्षर लाने का विधान
संजोगावरणटु खउमट्टि पायए दुबे रासि । अण्णोषणसमभासो रूयूरणं णिहिसे गरिणदं ॥४६॥'
१. घपल पु. १३ पृ. २४८ । २-३. धवल पु. १३ पृ २४८ ।