Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
४१६/ गो. सा. जीव काण्ड
गाथा १३३-३३४
का दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । 'यह यह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धि में जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है ।"
अक्षर श्रुतज्ञान
चरिमुच्वंकेर व हिदप्रत्थक्व र गुरिगदचरिममुच्वकं । प्रत्यवखरं तु गाणं होदित्ति जिणेहि पिट्ठि ॥ ३३३ ॥
गाथार्थ - अन्तिम उर्वक से अर्थाक्षर को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उससे अन्तिम उको गुणित करने पर अर्थाक्षर ज्ञान होता है, ऐसा जिन (श्रुतकेवली ) द्वारा कहा गया है ।। ३३३ ।।
विशेषार्थ - प्रसंख्यात लोकप्रमाण षड् वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्यायसमास श्रुतज्ञान का उर्वक रूप अन्तिम विकल्प होता है । उस अन्तिम विकल्प को अर्थात् उदक को अनन्त रूपों से गुणित करने पर अक्षर नामक श्रुतज्ञान होता है ।
शङ्कर - उक्त प्रकार के इस श्रुतज्ञान की 'अक्षर' ऐसी संज्ञा क्यों हुई ?
समाधान- नहीं, क्योंकि द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षर से उत्पन्न श्रुतज्ञान की उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा हुई ।
अन्तिम पर्यायसमासज्ञान स्थान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको उसी (अन्तिम पर्याय समास ज्ञान) में मिलाने पर अक्षरश्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । "
इस प्रकार अक्षरज्ञान के सम्बन्ध में धवल ग्रन्थ में दो मत पाये जाते हैं । एक मत के अनुसार अन्तिम पर्यायसमासज्ञान में अनन्तगुण वृद्धि होने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे मतानुसार अन्तिम पर्याय समास ज्ञान में अनन्तभाग वृद्धि होने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है। श्रुतकेवली के प्रभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में से कौनसा ठीक है । इसलिए दोनों मतों का संकलन करदिया गया है ।
इन दोनों मतों को दृष्टि में रखते हुए गा. ३३३ में अनन्तगुण वृद्धि व अनन्तभाग वृद्धि न कहकर यह कहा गया है कि अन्तिम पर्यायसमासज्ञान से अक्षरज्ञान को भाजित करके जो लब्ध प्राप्त हो उससे अन्तिम पर्यायसमास को गुणित करने पर अक्षरज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस कथन का उपर्युक्त दोनों मतों में से किसी भी मत से विशेष नहीं होता ।
श्रुतनिबद्ध विषय का प्रमाण
पण वणिज्जा भावा श्रणंतभागो दु श्ररण भिलप्पाणं । पथरिगज्जाणं पुरण अनंतभागों सुवरिणबद्धो ॥ ३३४ ॥ । *
१. घवल पु. १३ पृ. २६४-२६५ । २. धवल पु. ६ पृ. २२ ३. धवल पु. १३५. २६४ ८ जयधवल पु. १ पृ. ४२, धवल पु. ६ पृ. ५७ व पु. १२ पू. १७१ पर भी हैं ।
४. यह गाथा