Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
४००/गो, सा, जीवकाण्ड
गाथा ३१६
इसके प्रावृत्त होने पर जीव के प्रभाव का प्रसंग प्राता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्तगुरणे ज्ञानविभागप्रतिच्छेद पाते हैं।
शा-लब्ध्यक्षर ज्ञान सब जीवराशि से अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान-वह परिकर्म से जाना जाता है । यथा-"सब जीवराशि का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रश्य प्राप्त होता है। पुनः सब पुद्गल द्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र बर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है। पुन: सब कालों का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब आकाशश्रेणी प्राप्त होती है। पुनः सब आकाशश्रेणी का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक मात्र वर्गस्थान आगे जाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है । पुन: उसके भी उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर एक जीव का अगुरुलघुगुरण प्राप्त होता है। पुन: इसके भी उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक काक्षरसावयास होता है। ऐसा परिवार में कहा है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का
भाग देने पर ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सब जीवराशि से अनन्तररणा लब्ध होता है। इस प्रक्षेप को प्रतिराशिभूत लबध्यक्षर ज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान का प्रमाण उत्पन्न होता है। पुनः पर्यायज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध पावे उसे उसी पर्यायज्ञान में मिलादेने पर पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है। पुन: इसके आगे अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातमुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि क्रम से असंख्यात लोकमात्र पर्याय.. समासज्ञान स्थानों के द्विचरम स्थान के प्राप्त होने तक पर्याय सभासज्ञान स्थान निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं। पुनः एक प्रक्षेप की वृद्धि होने पर अन्तिम पर्याय समास स्थान होता है। इस प्रकार पर्यायसमासजान स्थान असंख्यात लोकमात्र छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं।
पुनः अन्तिम-पर्यायसमासज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो लब्ध पावे, उसको अन्तिम-पर्यायसमासज्ञान में मिलाने पर अक्षरज्ञान उत्पन होता है। यह अक्षरज्ञान सूक्ष्म निगोद लवध्यपर्याप्तक के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है। इस अक्षरज्ञान से पूर्व के सब ज्ञान अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान हैं, जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान पतित हैं।
अक्षर के तीन भेद हैं--लब्ध्यक्षर, निवृत्त्यक्षर और संस्थान अक्षर। सूक्ष्म-निगोदलब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेबलो तक जीव के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सब की लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की नित्यक्षर संज्ञा है। उस नित्यक्षर के व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं। व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है। अध्यक्त नित्यक्षर द्वीन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक होता है। संस्थानाक्षर का दूसरा नाम स्थापना-अक्षर है।
शङ्खा --- स्थापना क्या है ?
१, धवल पु १३ पृ. २६२-२६४ । २. धवल पु. १३ पृ. २६४ ॥