Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४०६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३२३-३३१
स्थानों में भामाहार अथवा गुणाकार की क्लम से अवस्थित राशि हैं ॥३२४।। संदृष्टि के लिए क्रम से छह वृद्धियों की ये संज्ञा है उर्वत, चतुरङ्क, पंचाकू, षडङ्क, सप्ताङ्क, अष्टाङ्क ॥३२५।। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पूर्व वद्धि होनेपर एक बार उत्तरवद्धि होती है। पूनः पुनः यह क्रम चरमवद्धि पर्यन्त होता है ॥३२६॥ आदि षट्स्थान में पांच दिया होती है। शेष सर्व षट्स्थानों में छह वृद्धियाँ होती हैं। पदों की संख्या सर्वत्र सरश है ।।३२७।। षट्स्थानों में पादिस्थान अष्टाङ्क और अन्तिम स्थान उर्वङ्क होता है। क्योंकि जघन्य ज्ञान भी अष्टाङ्ग है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।३२८|| एक षट्स्थान में एक ही अष्टाङ्क और सप्ताङ्क काण्डक प्रमाण होते हैं। उसके नीचे उर्वक तक एक अधिक काण्डक प्रमाण से क्रम से गुणित करते जाना चाहिए ॥३२॥ सर्व वृद्धियों का जोड़ एक अधिक काण्डक के बर्ग को और धन को परस्पर गुणा करने से प्राप्त होता है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।३३०॥ उत्कृष्ट संख्यातमात्र असंख्यातभाग वृद्धिस्थानों के हो जाने पर अथवा उत्कृष्ट संख्यात के तीन चौथाई स्थानों के होजाने पर अथवा इकतालीस बटा छप्पन से गृणित उत्कृष्ट संख्यात, इतने स्थानों के हो जाने पर अथवा उत्कृष्ट संस्थात के सात बटा दस स्थानों के हो जाने हर लब्ध्यक्षर ज्ञान दुगुणा हो जाता है ।।३३१॥
विशेषार्थ-अनन्तभाग बुद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुरगवृद्धि; इन छहों वृद्धियों के समुदायात्मक यह एक षड्वृद्धिस्थान होता है ।। अनन्तभाग वृद्धिस्थान काण्डक प्रमाण जाकर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। फिर भी काण्डकप्रमारग अनन्तभागवृद्धि के स्थान जाकर द्वितीय बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। इस क्रम से काण्डक प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धियों के हो जाने पर पुनः काण्डक प्रमाण अनन्तभाग जाकर संख्यात भाग वृद्धि होती है। पश्चात् पूर्वोद्दिष्ट समस्त अधस्तन अध्वान जाकर द्वितीय वार संख्यातभाग वृद्धि होती है। पुन: उतना मात्र अध्वान जाकर तृतीय बार संख्यात भाग वृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण संख्यात भाग वृद्धियों के हो जाने पर, संख्यात भाग वृद्धि की उत्पत्ति के योग्य एक अन्य अध्यान जाकर एक बार संख्यातगुण वृद्धि होती है। पश्चात पुनः (पूर्वोद्दिष्ट) समस्त अधस्तम अध्वान जाकर द्वितीय बार संख्यातगुण वृद्धि होती है। इस विधि से काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियों के हो जाने पर, पुनः संख्यातगुणवृद्धि विषयक एक अन्य अध्वान जाकर असंख्यात गुणवृद्धि होती है। फिर अधस्तन समस्त अध्वान जाकर द्वितीय बार असंख्यात गुणवृद्धि होती है। इस प्रकार काण्डक प्रमाण असंख्यात गुणवृद्धियों के हो जाने पर, पुन: असंख्यात गुरावृद्धिविषयक एक अन्य अध्वान जाकर एक बार अनन्तगुणवृद्धि होती है। यह एक षट्स्थान है। ऐसे असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान होते हैं ।२ काण्डक प्ररूपणा में अनन्त भागवृद्धिकाण्डक, असंख्यातभागवुद्धिकाण्डक, संख्यातभागवृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्डक, असंख्यातगुरगबृद्धिकाण्डक, अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक होते हैं ॥२०२।।
षट्स्थान प्ररूपणा में अनन्तभागवृद्धि किस वृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत हुई है ? अनन्तभागवृद्धि सब जीवों से वृद्धिगत हुई है। इतनी मात्र वृद्धि है ॥२०४।।" यहाँ पर सब जीवराशि की संख्या से प्रयोजन है। सब जीवराशि का जघन्य स्थान में भाग देने पर जो लब्ध हो वह वृद्धि का प्रमाण है। जघन्यस्थान को प्रतिराशि करके उसमें वृद्धिप्राप्त प्रक्षेप को मिलाने से अनन्त भागवृद्धि का प्रथमस्थान
१. प.पु. ६ पृ. २२ ।
२. घ.सु. १२ पृ. १२०-१२१ ।
३. घ.पु. १२ पृ. १२८ ।
४. ध.पु. १२ पृ. १३५ ।