Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१५
है वह बुद्धि 'कोष्ठा' कही जाती है। जिसमें विनाश के बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि 'प्रतिष्ठा' है ।
संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये एकार्थबाची नाम हैं ।।४१।।
जिसके द्वारा समीचीन रूपसे जाना जाता है, वह 'संज्ञा' है। स्मरण करना स्मृति है। मनन करना मति है। चिन्तन करना चिन्ता है । यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातु से बने हैं तो भी रूढ़ि से पर्यायवाची हैं।
एकेन्द्रिय जीव के लब्ध्यक्षर ज्ञान से लेकर छह वृद्धियों के साथ स्थित असंख्यात लोकप्रमाण मतिज्ञान के विकल्प होते हैं, उन सब ज्ञानों का इन्हीं भेदों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
॥ इति मतिज्ञानम् ॥
श्रुतज्ञान का सामान्य लक्षण प्रत्थादो अत्यंतरमुवलंभतं भरपंति सुदरगाणं ।
प्राभिरिणबोहियपुग्वं पियमेरिणह सद्द पमुहं ॥३१५।।* गाथार्थ-मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ के अवलम्बन से तत्सम्बन्धी दुसरे पदार्थ का ज्ञान श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञानपूर्वक होता है। यहाँ शब्दजन्य श्रुतत्रान मुख्य है ।।३१५।।
विशेषार्थ--शब्द और धूमादिक लिंग के द्वारा जो एक पदार्थ से तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थ का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान हैं। उनमें शब्द के निमित्त से उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान मुख्य है। बह दो प्रकार का है अंग और अंगबाह्य । अंगश्रुत बारह प्रकार का है और अंगबाह्य चौदह प्रकार का है।' 'श्रुतज्ञान' मतिज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान की उत्पत्ति नहीं पाई जाती है।
'श्रुत' शब्द कुशल शब्द के समान जहत्स्वार्थवृत्ति है। जैसे कृश (तीक्ष्ण नोकवाली घास) काटने रूप क्रिया का आश्रय करके सिद्ध किया गया कुशल शब्द सब जगह 'पर्यवदात' (विमल या मनोज्ञ) अर्थ में आता है, उसी प्रकार 'श्रुत' शब्द भी धवण क्रिया को लेकर सिद्ध होता हुआ भी रूढ़ि बश किसी ज्ञान विशेष में रहता है, न कि केवल श्रवण से उत्पन्न ज्ञान में ही ! वह भी श्रुतझान मतिपूर्वक अर्थात् मतिज्ञान के निमित्त से होने वाला है, क्योंकि 'कार्य को जो पालन करता है अथवा पूर्ण करता है वह पूर्व है' इस प्रकार पूर्व शब्द सिद्ध हुआ है ।
शङ्का--भतिपूर्वत्व की समानता होने से श्रुतज्ञान में कोई भेद नहीं होता?
समाधान-- ऐसा नहीं है, क्योंकि मतिपूर्वत्व के समान होने पर भी प्रत्येक पुरुष में श्रुतज्ञाना१. धवल पु. १३ पृ. २४३ । २. घयल पु. १३ पृ. २४४ । ३. सर्वार्थसिद्धि ।।१३। ४. धवल पु. १३ पृ. २४४। ५. यह गाथा धनल पु. १ में पृ. ३५६ पर गाथा १५३ है, तथा प्रा. पं. सं. य. १ गाथा १२२ पृ. २६ पर भी है। ६. धवल पु. १ सूत्र ११५ की टीका पृ. ३५७ । "श्रुतं मतिपूर्व द्वय्नेक-द्वादशभेदम् ॥१५२०:।" [त. म.] । ७. जय धवल पु. १ पृ. २४ ।