Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३१२-३१४
घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक मात्र उपमा प्रत्यय ही वहाँ उपलब्ध होता है। इसका प्रतिपक्षभूत निःसृत प्रत्यय है, क्योंकि कहीं पर किसी काल में वस्तु के एकदेश के ज्ञान की ही उत्पत्ति देखी जाती है ।" अभिमुख अर्थ का ग्रहण करना निःसृत अवग्रह है और अनभिमुख अर्थ का ग्रहण करना अनिःसृत - श्रवग्रह है। अथवा उपमान- उपमेय भाव के द्वारा ग्रहण करना निःसृत प्रवग्रह है, जैसे कमलदलनयना अर्थात् इस स्त्री के नयन कमलपत्र के समान हैं। उपमान- उपमेय भाव के बिना ग्रहण करना ग्रनिःसृत अवग्रह है ।
नियमित गुण - विशिष्ट अर्थ का ग्रहण करना उक्त प्रवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा धवल पदार्थ का ग्रहण करना और घ्राणेन्द्रिय के द्वारा सुगन्धित द्रव्य का ग्रहण करना इत्यादि । अनियमित गुण - विशिष्ट द्रव्य का ग्रहण करना श्रनुक्त श्रवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा गुड़ आदि के रस का ग्रहण करना और घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दही श्रादि के रस का ग्रहण करना ।
कृतिश्रनुयोगद्वार में भी कहा है कि प्रतिनियत गुणविशिष्ट वस्तु के ग्रहण के समय ही जो गुरण उस इन्द्रिय का विषय नहीं है ऐसे गुण से युक्त उन वस्तु का ग्रहण होना श्रनुक्त प्रत्यय है । यह प्रत्यय सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि चक्षु के द्वारा लवण, शर्करा और खांड के ग्रहण के समय ही कदाचित् उसके रस का ज्ञान हो जाता है, दही की गंध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ज्ञान हो जाता है, प्रदीप के स्वरूप का ग्रहण होते समय ही कदाचित् उपके कान हो जाता है और संस्कारसम्पन्न किसी के शब्दश्रवण के समय ही उस वस्तु के रसादि का ज्ञान भी देखा जाना है। इसका प्रतिपक्षभूत उक्त प्रत्यय है । ४
शङ्का - मन से मुक्त का विषय क्या है ?
समाधान- अष्ट, अश्रुत और अनुभूत पदार्थ | इन पदार्थों में मन की प्रवृत्ति प्रसिद्ध भी नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर उपदेश के बिना द्वादशांग श्रुत का ज्ञान नहीं बन सकता है। शङ्का - निःसृत और उक्त में क्या भेद है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उक्तप्रत्यय निःसृत और अनिःसृत उभय रूप होता है, इसलिए उसे निःसृत से अभिन्न मानने में विरोध आता है।*
पूर्वोक्त अनुक्त अवग्रह ग्रनिःसृत अवग्रह के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि एक वस्तु के ग्रहण काल में ही उससे पृथग्भूत वस्तु का उपरिम भाग के ग्रहणकाल में ही परभाग का और अंगुलि के ग्रहणकाल में ही देवदत्त का ग्रहण करना श्रनिःसृत श्रवग्रह है ।"
नित्यत्व विशिष्ट स्तम्भ यादि का ज्ञान स्थिर अर्थात् ध ुव प्रत्यय है। स्थिर ज्ञान एकान्त रूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि विधिनिषेध के द्वारा यहाँ पर भी अनेकान्त की विषयता देखी जाती है। बिजली और दीपक की लौ श्रादि में उत्पाद - विनाशयुक्त बस्तु का ज्ञान अवप्रत्यय है । उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त वस्तु का ज्ञान भी अन वप्रत्यय है, क्योंकि पह
१. श्र. पु. १३ पृ. २३५ । ध. पू. १६ प्र. १५३-१५४ |
२. अ.पु. ६ पृ. २० ॥ ५. सवल पु. ६ पृ. २३१,
३. ध. पु ६ पृ. २०१ ४. व. पु. ६ पृ. २३८-२३१, घवल पु. १३ १५४ १५५ । ६. बबल पु. ६ पृ. २० ॥