Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
जानमागंणा / ४०१
समाधान - 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार प्रभेद रूप से बुद्धि में जो स्थापना होती है, या जो लिखा जाता है, वह स्थापना अक्षर है ।
शङ्का - इन तीन अक्षरों में से प्रकृत में कौनसे अक्षर से प्रयोजन है ?
समाधान - लब्ध्यक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरों से नहीं है; क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्व धारी के होता है । जघन्य निर्ऋत्यक्षर हीन्द्रिय पर्याप्तक श्रादिकों के होता है और उत्कृष्ट १४ पूर्वधारी के होता है इसी प्रकार संस्थानाक्षर का भी कथन करना चाहिए। एक अक्षर के द्वारा जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह जवन्य अक्षर श्रुतज्ञान है । इस अक्षरज्ञान के ऊपर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने पर अक्षरसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । अक्षरों को मिलाकर एक पद नाम का श्रुतज्ञान होता है ।" इस प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि होते हुए संख्यात
गाथा ३१७
जितने अक्षर हैं उतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। अक्षरों का प्रमाण इस प्रकार है
वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और ऊष्माक्षर चार इस प्रकार तैंतीस व्यंजन होते हैं । अ, , उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं ।
शङ्का - ए, ऐ, श्रो, श्री इनके हस्व भेद नहीं होते ?
समाधान--- नहीं, क्योंकि प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता । प्रयोगवाह मं, अः और ये चार ही होते हैं। होते हैं । " इस प्रकार सब अक्षर चौंसठ (६४)
एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । त्रिमात्रस्तु लुतो ज्ञेयो व्यंजनं त्वद्धं मात्रकम् ॥१२॥३
एक मात्रा वाला ह्रस्व है, दो मात्रा वाला दीर्घ तीन मात्रा वाला प्लुत जानना चाहिए और व्यंजन अर्थ मात्रा वाला होता है ।
इन चौंसठ अक्षरों से अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के चौंसठ विकल्प होते हैं। इन प्रक्षरों की संख्या की राशि प्रमाण २' का विरलन कर परस्पर गुणा करने पर एकट्ठी अर्थात् १६४४६७४४०७३७०६५५१६१६ प्राप्त होता है । इस संख्या में से एक कम करने पर पूर्ण श्रुत के समस्त अक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है। इतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के विकल्प हैं और इतना ही उत्कृष्ट श्रुतज्ञान का
प्रमाण है ।
बीस प्रकार के श्रुतज्ञान का कथन पज्जायक्खर पद संघार्द दुगवारपाई च य पाहुडयं
पडिवत्तियारिणजोगं च । वत्यु पुध्वं च ॥३१७॥
१. धवल पु. १३ पृ. २६४-२६५ । २. घवल पु. १३ पृ. २४७ । १३ पृ. २४६ ।
३. धवल पु. १३ पृ. २४८ ।
४. घवल पु.