Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २१७-२१६
योगमार्गणा/२६५
केवली पर्यन्त होते हैं।'
शङ्का–चार मनोयोगों के अतिरिक्त (सामान्य) मनोयोग इस नाम का पांचां मनोयोग कहाँ से प्राया?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भेदरूप चार प्रकार के मनोयोगों में रहने वाले सामान्य योग के पांचवीं संख्या बन जाती है।
शङ्का-वह सामान्य क्या है, जो चार प्रकार के मनोयोग में पाया जाता है।
समाधान–यहाँ पर सामान्य से मन की सदृशता का नहण करना चाहिए। मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है।
शङ्का पूर्वप्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति देखी जाती है ?
समाधान-यदि प्रयत्न के बिना भी मन की प्रवृत्ति होती है तो होने दो, क्योंकि ऐसे मन से होने वाला योग मनोयोग है, यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित नहीं है। किन्तु मन के निमित्त से जो परिस्पन्दरूप प्रयत्नविशेष होता है, वह यहाँ पर योगरूप से विवक्षित है।
शङ्का--केवलीजिन के सत्यमनोयोग का सद्भाव रहा आवे, क्योंकि वहाँ पर वरतु के यथार्थ ज्ञान का सद्भाव पाया जाता है। परन्तु उनके असत्यमृषामनोयोग का सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ पर संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का प्रभाव है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि संशय और अनध्यबसाय के कारण रूप बचन का कारण मन होने से उस में भी अनूभयरूप धर्म रह सकता है। अतः सयोगी जिन में अनुभय मनोयोग का सद्भाव स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
शङ्का-केवली के वचन संशय और अमध्यवसाय को पैदा करते हैं, इसका क्या तात्पर्य है ?
समाधान –केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता का क्षयोपशम अतिशय रहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से संप्रय और अनध्यवमाय को उत्पत्ति हो सकती है।
शङ्का-तीर्थडरों के वचन अनक्षर रूप होने के कारण स्वनिरूप हैं, इसलिए वे एकरूप हैं, और एकरूप होने के कारण वे सत्य और अनुभय रूप दो प्रकार के नहीं हो सकने ।
समाधान---नहीं, क्योंकि केवली के वचनों में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभयवचन का सद्भाव पाया जाता है । इसलिए केवली की ध्वनि अनक्षरात्मक ही है, यह बात प्रसिद्ध है।
शङ्का-बेवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता।
१. "मगा जोगो मुम्नमाजोगो असच्चमोसमणजोगो मणि मिच्छाइटि-प्पडि जाव सजोगिने बलि ति ।।५०१॥" [धवल पु. १ पृ. ९८२] । २. धवल. पु. १ पृ. २८ ।