Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३३२/नो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५२ परिणामयोग नहीं होता किन्तु धवल पु. १० पृ. ४२२, ४२७ व ४३१ पर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय से परिणामयोग होता है ऐसा कहा गया है ।' अपर्याप्तयोग से पर्याप्त योग असंख्यात गुणा होता है इसलिए सर्व लघु काल में पर्याप्त हुआ ऐमा व हा गया है । बहाँ भवस्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण है ।।२५।। आयु का उपभोग करता हुँप्रा बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है ॥२६॥ बहुत-बहुत बार बहुत संक्लेश परिणाम वाला होता है ।।२७।। इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवन के थोड़ा शेष रह जाने पर योग यामध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा ॥२८॥' अन्तिम जीव गुरगहानि स्थान में प्रावली के असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥२६॥ द्विचरम व त्रिचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ ||३०|| चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ ।।३१।। उस चरम समय में तद्भवस्थ जीव के कार्मरण शरीर उत्कृष्ट होता है ।।३२॥
पाँच शारीरों को उत्कृष्टस्थिति का प्रभागा पल्लतियं उवहीणं तेत्तीसांतेमुहत्त उवहीणं ।
छायट्ठी कम्मदिदि बंधुक्कस्सहिदी तारणं ॥२५२॥ गाथार्थ-तीन पल्य, तैतीस सागर, अन्तमुहर्त, छयासठ सागर और कर्मस्थितिबंध प्रमाण इन पांचों शरीरों की उत्कृष्ट स्थिति है ॥२५२॥
विशेषार्थ—प्रौदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य प्रमाण है, क्योंकि प्रौदारिक शरीर मनुष्य व तियचों के होता है। मनुष्य और तिर्यचों की उत्कृष्ट प्रायु तीन पल्य प्रमाण होती है।' अत: औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य प्रमाण कही है। वैक्रियिक शरीर देव व नारकियों के होता है। उनकी उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर है। अतः वैक्रियिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर कही गई है। ग्राहारक शरीर का स्वामी प्रमत्तसंयत है। प्रमत्तसंयत गुरगस्थान का काल अन्तमुहूर्त है । अतः प्राहारक शरीर की स्थिति अन्तर्मुहृतं कही गई।
तेजसशरीर और कार्मण शरीर इन दोनों शरीरों का सब जीवों के अनादिकाल से सम्बन्ध अत: इनकी स्थिति विवक्षित समयप्रबद्ध की अपेक्षा से कही गई है।
है ।
१. ध.पु. १० पृ. ५४-५५ "एक्काए वि पज्जतीए असमत्ताए पज्जत्तएसु परिगामजोगो रुप हो दि ति।" [३. पु. १. पृ. ५५] "सो जहरणपरिणामजोगो तसि कत्थ होदि ? सरीरपज्जत्तीएपज्जत्त मदरस पढमम मए व होदि ।" [घ.पु. १. पृ. ४२२,४२१,४३१] अर्थात् शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय में परिणाम योग होता है। यह दूसरा मत है 1 २. ध. पू. १ पृ. ५५ । ३. ध. पु. १० पृ. ५५-५७ । ४. ध.पु. १० पृ. ६८। ५. ध पु. १० पृ. १०-१०६ । तथा पृ. २२४ सूत्र ३४। ६. "नस्थिती परावरे विपल्योपभारतम् हत ।।३।। तिर्यग्योनिजानां च ।।३६।।' (तत्त्वार्थ सूत्र न. ३)। ७. "देवनारकाणामुपपाद: ।।२.३४।। प्रौपपादिक वैक्रियिकम् ।।२/४६।।" (तत्त्वाचंसूत्र)। ८. "महातम :प्रभायां त्रयस्त्रिशत्सागरोपमा स्थिति नि ।।३/४३ । विजयादिषु त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाणि उत्कृस्टा स्थितिः ।। ४ । ३२/३" (राजवातिक)। ६. 'शुभ विशुद्धमायापातिचाहार के प्रमत्तसंयतस्यंब ।। ४६ । (तस्वायंसूत्र प्र. २)। १०.धवल पुस्तक ४ । ११. 'अनादिसंबन्धे च ।।४।। सर्वरय ।।४।। (तस्त्रार्थ सूत्र प्र. २) ।