Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३०७-३०८
ज्ञानमागणा/१८५
ईहा ज्ञान --अवग्रह से ग्रहण किये गये पदार्थ के विशेष को जानने के लिए अभिलापारूप जो ज्ञान होता है वह ईहा ज्ञान है ।' अवग्रह से ग्रहण किये गये अर्थ को विशेष जानने की आकांक्षा ईहा है। अर्थात् अवग्रह के द्वारा जो पदार्थ ग्रहण किया गया है, उसकी विशेष जिज्ञासा ईहा है। जैसे किसी पुरुष को देखकर क्या यह भव्य है ? अथवा क्या यह अभव्य है? इस प्रकार की विशेष परीक्षा करने को ईहा ज्ञान कहते हैं। ईहा ज्ञान सन्देह रूप नहीं है, क्योंकि ईहात्मक विचार रूप बुद्धि से सन्देह का विनाश पाया जाता है। सन्देह से उपरितन तथा अवाय ज्ञान से अधस्तन ऐसी अन्तराल में प्रवृत्त होनेवाली विचार-बुद्धि का नाम ईहा है ।
शङ्का-विशेष रूप से तर्क करना श्रुतज्ञान है । इस शास्त्रवचन के अनुसार ईहा वितर्करूप होने से श्रुतज्ञान है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रवग्रह से प्रतिगृहीत अर्थ का आलम्बन करने वाला वितर्क ईहा है और भिन्न अर्थ का आलम्बन करनेवाला वितर्क श्रुतज्ञान है।
शङ्का-अवग्रह से पुरुष को ग्रहण करके, क्या यह दक्षिण का रहनेवाला है या उत्तर का, इत्यादि विशेष ज्ञान के बिना संशय को प्राप्त हुए व्यक्ति के उत्तरकाल में विशेष जिज्ञासा के प्रति जो प्रयत्न होता है उसका नाम ईहा है । इस कारण अवग्रह गृहीत विषय को ग्रहण करने तथा संशयात्मक होने से ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है ?
समाधान-गृहीत-ग्रहण अप्रमारणता का कारण नहीं है, क्योंकि उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है। दूसरे, ईहाप्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत वस्तु के उस अंश के निर्णय की उत्पत्ति में निमित्तभूत लिंग को, जो अवग्रह से नहीं ग्रहण किया गया है, ग्रहण करने वाला ईहा ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। एकान्ततः अग्रहीत को ही प्रमाण ग्रहण करते हो सो भी नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर अगृहीत होने के कारण खरविषाण के समान असत् होने से वस्तु सत्] के ग्रहण का विरोध होगा। ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं है, क्योंकि निर्णय की उत्पत्ति में निमित्त भूत लिंग के ग्रहण द्वारा संशय को दूर करनेवाले विमर्शप्रत्यय के संशय रूप होने में विरोध है। संशय के अाधारभूत जीव में समवेत होने से यह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि संशय के विरोधी और स्वरूपतः संशय से भिन्न उक्त प्रत्यय के अप्रमाण होने का विरोध है। अनध्यवसायरूप होने से भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकती, क्योंकि कुछ विशेषों का अध्यवसाय करते हुए संशय को दूर करने वाले उक्त प्रत्यय के अनध्यवसाय रूप होने का विरोध है। अतएव परीक्षा प्रत्यय (ईहा प्रत्यय) प्रमाण है, यह सिद्ध होता है। कहा भी है--
प्रवायावययोत्पत्तिस्संशयावयवच्छिया ।
सम्यगनिर्णयपर्यता परीक्षेहेति कथ्यते ॥४७॥ --संशय के अवयवों को नष्ट करके अवाय के अवयवों को उत्पन्न करनेवाली जो भले प्रकार निर्णयपर्यन्त परीक्षा होती है, वह ईहा प्रत्यय है ।।४७।।
१. घबल पु. १ पृ. ३५४ । २. "वितर्कः श्रुतम् ।" [त.सू. ६/३३] ।
३. धवल पु. ६ पृ. १७।
४. चंचल