Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३०७-३०८
शानमार्गगगा/३८३
स्पष्ट ग्रहण का नाम अर्थावग्रह है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अस्पष्ट ग्रहण के व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग आता है।
शङ्का - ऐसा हो जायो ?
समाधान नहीं, क्योंकि चक्षु से भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है, इसलिए उसे व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग पाता है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता;' सूत्र में उसका निषेध किया है।
आशुग्रहण का नाम अर्थावयह है, यह कला भी ठीक नहीं है, पपोंकि ऐसा मानने पर धीरेधोरे ग्रहरण होने को व्यंजनावग्रह का प्रसंग पाता है। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर धीरेधीरे ग्रहण करने वाला चाक्षुष अवग्रह भी व्यंजनावग्रह हो जाएगा। तथा क्षिप्र और अक्षिप्र ये विशेषण यदि दोनों अवग्रहों को नहीं दिये जाते हैं तो मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद नहीं बन सकते हैं।
शडा-मन और चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रियों के द्वारा अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करना नहीं उपलब्ध होता है ? २ कहा भी है--
पुठं सुणेइ सद्ध अपुट्ट वेय पस्सदे रुवं ।
गंधं रसं च फासं बलु पुठं च जाणादि ।।५४॥ -- -श्रोत्र से स्पृष्ट शब्द को सुनता है, परन्तु चक्षु से रूप को अस्पृष्ट ही देखता है। शेष इन्द्रियों से गन्ध, रस और स्पर्श को बद्ध व स्पृष्ट ही जानता है। इस सूत्र से इन्द्रियों के प्राप्त पदार्थ का ही ग्रहण करना सिद्ध होता है ?
समाधान- इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है--चक्ष रूप को अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, 'च' शब्द से मन भी अस्पृष्ट ही वस्तु को ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियाँ गन्ध, रस और स्पर्ण को बद्ध अर्थात् अपनी-अपनी इन्द्रियों में नियमित व स्पृष्ट ग्रहण करती हैं, 'च' शब्द से अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं। 'स्पृष्ट' शब्द को सुनता है यहाँ भी 'बद्ध' और 'च' शब्द जोड़ना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने पर दूषित व्याख्यान की अापत्ति पाती है। क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधि को ग्रहण करता हुया देखा जाता है और तु बड़ी की लता आदि अप्राप्त बाड़ी व वृक्ष आदि को ग्रहण करती हुई देखी जाती है। इससे शेष चार इन्द्रियाँ भी अप्राप्त अर्थ को ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध होता है ।
पदार्थ के पूरी तरह से अनिःसृतपने को और अनुक्तपने को अप्राप्त नहीं कहा गया है जिससे उनके अवग्रहादि का कारण इन्द्रियों का अप्राप्यकारीपना होवे ।
शङ्खा---तो फिर अप्राप्यकारीपने से क्या प्रयोजन है ? यदि पूरी तरह से अनिःमृतत्व और
१. "न चक्षुर्गनन्द्रियाभ्याम् ।" [तत्त्वार्थ सूव १/१६]। २. घ. पु. १३ पृ. २२०। ३. घ. पु. ६ . १५६ स. स. १/१६, रा. वा. १/१६-३ : वि. भा. ३३६ (नि, ५) आदि । ४. धवल पु. ६. पृ. १६० । ५. धवल पू. १३ पृ. २३०, धवल पु. ११ भूत्र ११५ की टीका। ६. धवल पु. १ पृ. ३५६ ।