Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३८६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया ३०७-३०
शङ्खा- ईहादिक प्रत्यय मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंकि वे श्रुतज्ञान के समान इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होते।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए अवग्रह ज्ञान से उत्पन्न होने वाले ईहादिकों को उपचार से इन्द्रियजन्य स्वीकार किया गया है।
शङ्का - वह औपचारिक इन्द्रियजन्यता श्रुतज्ञान में भी मान लेनी चाहिए?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस प्रकार ईहादिक की अवग्रह से गृहीत पदार्थ के विषय में प्रवृत्ति होती है, उस प्रकार चूकि श्रुतज्ञान की नहीं होती, अत: व्यधिकरण होने से श्रुतज्ञान के प्रत्यासत्ति का अभाव है। इस कारण श्रुतज्ञान में उपचार से इन्द्रियजन्यत्व नहीं बनता । इसलिए श्रुत के मतिसंज्ञा भी सम्भव नहीं है।'
___अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा है। यह प्रानध्यवसायस्वरूप अवग्रह से उत्पन्न हुए संशय के पीछे होती है, क्योंकि शुक्ल रूप क्या बलाका है या पताका है, इस प्रकार संशय को प्राप्त हुए जीव के ईहा को उत्पत्ति होती है। अविशद अवग्रह से पीछे होने वाली ही ईहा है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि विशद अवग्रह के द्वारा 'यह पुरुष' इस प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी 'क्या यह दाक्षिणात्य है या उदीच्य है', इस प्रकार के संशय को प्राप्त हुए मनुष्य के भी ईहाज्ञान की उत्पत्ति उपलब्ध होती है।
शङ्का-संशय प्रत्यय का अन्तर्भाव किस ज्ञान में होता है ? समाधान-ईहा में, क्योंकि वह ईहा का कारण है। शङ्का—यह भी क्यों ? समाधान—क्योंकि कारण में कार्य का उपचार होने से । वस्तुतः वह संशय प्रत्यय अवग्रह
शङ्का ईहा का क्या स्वरूप है ?
समाधान-संशय के बाद और अवाय के पहले बीच की अवस्था में विद्यमान तथा हेतु के अवलम्बन से उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्यय को ईहा कहते हैं ।
ईहा अनुमानज्ञान नहीं है क्योंकि अनुमानज्ञान अनवगृहीत अर्थ को विषय करता है और अवगृहीत अर्थ को विषय करने बाले ईहाज्ञान तथा अनवगृहीत अर्थ को विषय करने वाले अनुमान को एक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न अधिकरण बाले होने से इन्हें एक मानने में विरोध प्राता है। इनके एक न होने का यह भी एक कारण हैं कि ईहाज्ञान अपने विषय से अभिन्नरूपलिंग से उत्पन्न होता है और अनुमानज्ञान अपने विषय से भिन्न रूप लिंग से उत्पन्न होता है, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध पाता है। संशयज्ञान के समान वस्तु का परिच्छेदक नहीं होने से ईहाज्ञान
१. घवल पु. ६ पृ. १४६-१४८ ।