Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गांधा ३१०.३११ गाथार्थ---एक, चार, चौबीस और अट्ठाईस इनकी तीन-तीन पंक्तियाँ करनी। इन तीनों पंक्तियों के प्रकों को एक, छह व बारह से गुरणा करने पर मतिज्ञान के भेदों की संख्या प्राप्त होती है। बहु, बहुविध, क्षित, अनिमृत, अनुक्त और ध्र व और इनके प्रतिपक्षी, इनमें से प्रत्येक मतिज्ञान का विषय होने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ।।३१० । ३११॥ (३१४,३१०'
विशेषार्थ सामान्य की अपेक्षा मतिज्ञान एक प्रकार का है। व्यंजनावग्रह की अपेक्षा चार प्रकार का है—१. श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, २. घ्राणेन्द्रिय ब्यंजनावग्रह, ३. जिह्वन्द्रिय व्यंजनावग्रह, ४. स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह २ व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता। चार इन्द्रियों की अपेक्षा चार भेद कहे गए हैं। व्यंजनावग्रह के पश्चात् ईहा-अबाय-धारणाज्ञान नहीं होता, मात्र व्यंजमावग्रह होता है, अत: व्यंजन-ईहा आदि का कथन नहीं किया गया है। अर्थ अर्थात-पदार्थ के पाँचों इन्द्रियों और मन इन छहों से अवग्रह-ईहा-अवाय-धारणा होते हैं अतः अर्थ की अपेक्षा छह अवग्रह, छह ईहा, छह अवाय और छह धारणा इस प्रकार २४ भेद होते हैं। इन चौबीस में चार व्यंजनावग्रह मिला देने से (२४+४) २८ भेद हो जाते हैं।
बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुब तथा इनके प्रतिपक्षभूत पदार्थों का आभिनिबोधिक ज्ञान होता है। अर्थात् वह, अल्प, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसत, अनिसृत, उक्त, अनुक्त, ध्र व, अध्र व इन बारह प्रकार के पदार्थों के आश्रय से मतिज्ञान होता है । इन बारह से अट्ठाईस को गुणा करने से (२८ x १२) ३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं।
विशिष्ट स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मतिज्ञान चौवीस प्रकार का होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है, चक्षुइन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान चार प्रकार का है, अवग्रह, ईहा, प्रबाय और धारणा। इसी प्रकार शेष नार इन्द्रियों से और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अवग्रह, ईहा, अबाय और धारणा के भेद से चार-चार प्रकार का होता है। इस प्रकार ये सब मिलकर चौबीस भद हो जाते हैं। अथवा मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का होता है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--अवग्रह दो प्रकार का होता है अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। उनमें चक्षु और मन से अर्थावग्रह ही होता है, क्योंकि इन दोनों से प्राप्त अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियों के अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये दोनों पाये जाते हैं। चौबीस प्रकार के अर्थमतिज्ञान में चार प्रकार का व्यंजनावग्रह मिलाने से (२४ + ४) २८ प्रकार का हो जाता है। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रव तथा इनके विपरीत अल्प, एकविध, अक्षिप्र, निःसत, उक्त और अध्र व; इन वारह प्रकार के पदार्थों को मतिज्ञान विषय करता है। अत: इन्हें पूर्वोक्त २८ प्रकार के मतिज्ञान में पृथक्-पृथक प्रत्येक में मिला देने पर [अर्थात् गुणा करने पर] मतिज्ञान (२८४१२) तीनसौ छत्तीस प्रकार का हो जाता है।
१. मुदित पुस्तकों में गाथा ३१० की क्रम संख्या ३१४ है और माधा से ३१२ की क्रम सं. ३१० है किन्तु गाथा ३१४ के बिना गाया ३१ - का अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकता अत: गाथा की क्रम सं. में परिवर्तन किया गया है । २. श्र.पू. १३ पृ. २२१ सूत्र २६६ ३. "व्यंजनस्यावग्रहा ।।१८।। न चक्षुरनिदियाभ्यां ।।१६॥ तत्त्वार्थ सत्र प्र.१]। ४. घ.पु. १३ सूत्र २८, ३०, ३२, ३४ पृ. २२७, २३०-३१, २३२, २३३ । ५. "बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवागां मेतराणाम् । १६। [तत्त्वार्थ सूत्र अ. १] । ६. घ.पु. १ पृ. ३५४ । ७. ज.ध.पु. १ पृ. १४ ।