Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३८८/गो. मा. जीवकार
गाथा ३६
विषय और विपयी के सन्निपात के अनन्तर उत्पन्न होने वाला प्रथम ज्ञान विशेष अवग्रह है और ईहा के अनन्तर काल में उत्पन्न होने वाले सन्देह के प्रभावरूप अवायज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय इन दोनों ज्ञानों में एकता नहीं है।
शङ्का-लिंग से उत्पन्न होने के कारण अवाय श्रुतज्ञान है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ से पृथग्भूत अर्थ काम लम्बन हारलेशाली,
मिस लिंगनित बुद्धि को श्रुतज्ञानपना माना गया है। किन्तु अवाय ज्ञान अवग्रह गृहीत पदार्थ को ही विषय करता है और ईहाज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होता है, इसलिए वह श्रुतज्ञान नहीं हो सकता है।'
शङ्का-प्रवायज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि वह ईहा से निर्णीत लिंग के पालम्बन घल से उत्पन्न होता है। जैसे अनुमान ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले तथा ईहा प्रत्यय से विषयोकृत लिंग से उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले अवाय प्रत्यय के मतिज्ञान न होने का विरोध है और अनुमान अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रह से निणीत लिंग के बल से अन्य वस्तु यानी अन्यपदार्थ में उत्पन्न होता है।
जिससे निति पदार्थ का विस्मरण नहीं होता, वह धारणा है । अवायज्ञान से निर्णय किये गए पदार्थ का कानान्तर में विस्मरगा न होना धारणा है। जिस ज्ञान से कालान्तर अर्थात् अागामी कान में भी अविस्मरण के कारणभूत संस्कार जीव में उत्पन्न होते हैं उस ज्ञान का नाम धारणा है। अवाय के द्वारा जाने हुए पदार्थ के कालान्तर में विस्मरण नहीं होने का कारणभूत ज्ञान धारणा है । यथा-'वही यह बलाका है जिसे प्रातःकाल हमने देखा था, ऐसा ज्ञान होना धारणा है।
शङ्का—फलज्ञान होने से ईहादिक (ईहा, अवाय, धारणा) ज्ञान अप्रमाण हैं ?
समाधान ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवग्रह ज्ञान के भी दर्शन का फल होने से अप्रमाणता का प्रसंग पाता है। दूसरे सभी ज्ञान कार्य रूप ही उपलब्ध होते हैं, इसलिए भी ईहादिक ज्ञान अप्रमाण हैं ?
शङ्का गृहीतग्राही होने से ईहादिक ज्ञान (हा, अबाय, धारण) अप्रमाण हैं ?
समाधान—ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वात्मना अगृहीत अर्थ को ग्रहण करने वाला कोई भी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। दूसरे, गृहीत अर्थ को ग्रहण करना यह अप्रमाणता का कारण भी नहीं है, क्योंकि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप से जाघमान ज्ञानों में ही अप्रमाणता देखी जाती है।
:
१. धवल पु. ६ पृ. १८। २. घवल पु. ६ पृ. १४८ । ३. धवल पु. ६ पृ. १४४ । ५. धवल पु. १३ पृ. २१८-२१६ ।
४. धवल पृ. ६ पृ. १८ ।