Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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ज्ञानमार्गला / ३८७
अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ईहाज्ञान वस्तु को ग्रहण करके प्रवृत्त होता है और दाक्षिणात्य व उदीच्य विषयक लिंग का उसमें ज्ञान रहता है इसलिए उसमें अप्रमाणता सम्भव न होने के कारण उसे अप्रनाग मानने में विरोध श्राता है । प्रविशद अवग्रह के बाद होने वाली ईहा श्रप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह वस्तुविशेष की परिच्छित्ति का कारण है और वह वस्तु के एकदेश को जान चुकी है तथा वह संशय और विपर्ययज्ञान से भिन्न है । अतः उसे श्रप्रमाण मानने में विरोध आता है । वह अनध्यवसायरूप होने से अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि संशय का छेदन करना उसका स्वभाव है, शुक्लादि विशिष्ट वस्तु को सामान्यरूप से वह जान लेती है तथा त्रिभुवनगत वस्तुओं में से शुक्लता को ग्रहण कर एक वस्तु में प्रतिष्ठित करने की वह इच्छुक है; इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध प्राता है ।
गाथा ३०६
अवग्रह ज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में विज्ञान, आयु, प्रमाण, देश और भाषा आदिरूप विशेष से जानने की इच्छा सो ईहा ज्ञान है । ग्रवग्रह ज्ञान के पश्चात् और प्रवाय ज्ञान के पूर्व जो विचारात्मक ज्ञान होता है, जिसका स्वभाव अवग्रह ज्ञान में उत्पन्न हुए सन्देह को दूर करना है, वह हाज्ञान है ।"
प्रवाय व धारणा ज्ञान
ईहणकरणेण जदा सुरिगान होदि सो प्रवाधो दु 1
कालांतरेवि गिरिणदवत्युसमररणस्स कारणं तुरियं ॥ ३०६ ॥
गाथार्थ - ईहा ज्ञान के द्वारा जब भले प्रकार निर्णय होजाता है, पदार्थ के विषय में वह सुनिश्चय अवाय ज्ञान है। निर्णीत वस्तु के कालान्तर में स्मरण का कारण चौथा धारणा ज्ञान है ।
विशेषार्थ - ईहा के द्वारा जाने गये पदार्थ का निश्चयरूप ज्ञान अत्राय मतिज्ञान है । कालान्तर में भी विस्मरण न होने रूप संस्कार को उत्पन्न करने वाला ज्ञान धारणा मतिज्ञान है ||३०६ ॥
हा के अनन्तर हारूप विचार के फलस्वरूप जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रवाय ज्ञान है, अर्थात् ईहा ज्ञान में विशेष जानने की प्राकांक्षारूप जो विचार होता है, उस विचार के निर्णयरूप ज्ञान को वाय कहते हैं। स्वगत लिंग का ठीक तरह से ज्ञान हो जाने के कारण संशयज्ञान के निराकरण द्वारा उत्पन्न हुआ निर्णयात्मक ज्ञान सवाय है। यथा-ऊपर उड़ना व पंखों को हिलाना बुलाना आदि चिह्नों के द्वारा यह जानलेना कि यह बलाकापंक्ति ही है, पताका नहीं है, या वचनों के सुनने से ऐसा जान लेना कि यह पुरुष दाक्षिणात्य ही हैं, उदीच्य नहीं है; यह श्रवाय ज्ञान है ।"
शङ्ख?–अवग्रह् और अवाय इन दोनों ज्ञानों के निर्णयत्व के सम्बन्ध में कोई भेद न होने से एकता क्यों नहीं है ?
समाधान - - निर्णयत्व के सम्बन्ध में कोई भेद न होने से एकता भले ही रही आवे, किन्तु
२. घदल पु. १ सूत्र ११५ की टीका
१. जयधवल पु. १ पृ. ३३६ ॥ ४. घवल पु. १३ पृ. २१८ ।
३. जयभवत्व पु. १ पू. ५६३