Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
गाथा ३१२-३१४
ज्ञानमार्गगा/३९३
यथा--एक, दो, वहुत । वैपुल्य में यथा--बहुत भात, बहुत दाल ।'
शङ्का-बहु अवग्रह आदि ज्ञानों का प्रभाव है, क्योंकि ज्ञान एक-एक पदार्थ के प्रति अलगअलग होता है।
समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सर्वदा एक पदार्थ के ज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग आता है।
शङ्का-ऐसा रहा प्रावे ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर नगर, बन और छावनी में भी एक पदार्थ के ज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग पाजाएगा ।
शङ्का - नगर, वन और स्कन्धावार में चूकि एक नगर, एक वन और एक छावनी इस प्रकार एकवचन का प्रयोग अन्यथा बन नहीं सकता, इससे विदित होता है कि ये बहुत नहीं हैं ? ।
समाधान-नहीं, क्योंकि बहुत्व के बिना उन तीन प्रत्ययों की उत्पत्ति में विरोध पाता है। दूसरे एकवचन का निर्देश एकत्व का साधक है. ऐसी भी कोई बात नहीं है। क्योंकि वन में अवस्थित धवादिकों में एकत्व नहीं देखा जाता। सादृश्य एकत्व का कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका विरोध है ।
दूसरे जिसके मत में विज्ञान एक अर्थ को ही ग्रहण करता है, उसके मत में पूर्व विज्ञान की निवृत्ति होने पर उत्तर विज्ञान की उत्पत्ति होती है या पूर्वविज्ञान की निवृत्ति हुए बिना ही उत्तरविज्ञान की उत्पत्ति होती है ? पूर्व विज्ञान की निवृत्ति हुए बिना तो उत्तरविज्ञान की उत्पत्ति हो नहीं सकती, क्योंकि "विज्ञान एकमन होने से एक अर्थ को जानता है," इस वचन के साथ विरोध प्राता है और ऐसा होने पर "यह इससे भिन्न है" इस प्रकार के व्यवहार का लोप होता है। तीसरे, जिसके मत में एक विज्ञान अनेक पदार्थों को विषय नहीं करता है, उसके मत में मध्यमा और प्रदेशनी अंगुलियों का एक साथ ग्रहण नहीं होने के कारग तद्विषयक दीर्घ और ह्रस्व का आपेक्षिक व्यवहार नहीं बनेगा । चौथे, प्रत्येक विज्ञान को एक-एक अर्थ के प्रति नियत मानने पर स्थाणु और पुरुष में 'वह इस प्रकार उभयसंस्पर्शी ज्ञान न हो सकने के कारण तन्निमित्तक संशयज्ञान का प्रभाव होता है। पांचवें, पूर्णकलश को चित्रित करने वाले और चित्रकर्म में निष्णात चैत्र के क्रिया व कलशविषयक विज्ञान नहीं हो सकने के कारण उसकी निष्पत्ति नहीं हो सकती है। कारण कि एक साथ दो, तीन ज्ञानों के प्रभाव में उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध पाता है। छठे, एक साथ बहत का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्यप्रदेश में स्थित अंगलिपंचक का ज्ञान नहीं हो सकता । जाने गये अर्थ में भेद होने से विज्ञान में भी भेद है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नाना स्वभाव वाला एक ही त्रिकोटि परिणत विज्ञान उपलब्ध होता है। शक्तिभेद वस्तुभेद का कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि अलग-अलग अर्थक्रियाकारी न होने से उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता।' इस प्रकार बहुत वस्तुओं का एक साथ ग्रहण करना बहु-अवग्रह है। यह बहु-अवग्रह
३. धवल
१. घ.पु. १३ पृ. २३५; व ध.पु.६ पृ. ३४४ । २. घ.पु. १३ पृ. २३५-२३६ ब च.पु. ६ पृ. ३४६ । पु. १३ पृ. २३६ व धवल पु. पृ. १४६, १५०, १५१ ।