Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३१०-३११
ज्ञानमार्गम्गा/३८१
अवग्रहादिक चारों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति का नियम भी नहीं है, क्योंकि अवग्रह के पश्चात नियम से संशय की उत्पत्ति नहीं देखी जाती। संशय के बिना विशेष की आकांक्षा नहीं होती जिससे कि प्रवग्रह के पश्चात् नियम से ईहा उत्पन्न हो और न ईहा से नियमतः निर्णय उत्पन्न होता है, क्योंकि कहीं पर निर्णय को उत्पन्न न करने वाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अयाय से धारणाज्ञान भी नियम से नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है। इस कारण अवग्रह से लेकर धारणा तक चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं।' अर्थात् चारों ज्ञानों की उत्पत्ति सदा अमशः हो ही, इस नियम के प्रभाव को कारण बारों की मिता सिद्ध होती है। यदि चारों एक भतिज्ञानरूप होते तो सदा चारों को नियमतः व क्रमश: होना पड़ता। क्योंकि ये चारों ही ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं और दूसरे, इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान के द्वारा विषय किये गये पदार्थ को ही ये ज्ञान विषय करते हैं, इसलिए ये चारों ज्ञान (अवराह, ईहा, अवाय धारणा) मतिज्ञान कहलाते हैं ।
अब ईहादिक के जघन्य कालों का अल्पबहुत्व कहा जाता है
दर्शनोपयोग के काल से चाइन्द्रियजनित अवग्रह का काल विशेष अधिक है। इससे श्रोत्र इन्द्रिय अवग्रहज्ञान का काल विशेष अधिक है। इससे घ्राणइन्द्रिय प्रवग्रहज्ञान काल विशेषअधिक है। इससे जिह्वाइन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञान-काल विशेष अधिक है। इससे मनोयोग का जघन्यकाल विशेष अधिक है। इससे बचनयोग का जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे काययोग का जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे स्पर्शन इन्द्रियजनित अवग्रहज्ञान का जघन्य काल विशेषाधिक है। सर्वत्र विशेष का प्रमाण संख्यात, पायलियाँ लेना चाहिए।
शंका-मन से उत्पन्न होने वाले अवग्रह जान का अल्पवहुत्व क्यों नहीं कहा ?
समाधान-मन से उत्पन्न होने वाले अवग्रहजान के काल का मनोयोग के काल में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिए उसका पृथक् कथन नहीं किया गया ।
अवायज्ञानोपयोग का जघन्य काल स्पर्शन इन्द्रिय से उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञान के काल से विशेष अधिक है। यह अवायज्ञान का काल सभी इन्द्रियों में समान है। ईहा का जघन्य काल अप्राय के उक्त काल से विशेषअधिक है।
शेष सब सुगम है।
मतिज्ञान के एक, चार प्रादि करके तीनसौ-छत्तीस पर्यन्त भेदों का कथन
एक्कचउक्कं चउबीसदावीसं च तिपडि किच्चा। इगिछञ्चारसगुरिगदे मदिरगाणे होति ठारणारिण ॥३१०।।(३१४) बहु बहुविहं च खिप्पाणिस्सिवणुत्तं धुवंच इदरं च । तत्थेक्केषके जादे छत्तीसं तिसयमेवं तु ॥३११॥ (३१०)
१. धवल पु. ६ पृ. १४८ । २. ज.ध.पु. १ पृ. ३३७ । ३. ज.ध.पु. १ पृ. ३३४-३३६ ।