Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३८४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०७-३०८
अनुक्तत्व को प्राप्त नहीं कहा जाता तो चक्षु और मन से अनिःसृत और अनुक्त के अवग्रहादि कैसे हो सकेंगे? यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनिःसृत और अनुक्त के अवग्रहादि माने जावेंगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्व का प्रसंग पाजाएगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि इन्द्रियों के ग्रहण करने के योग्य देश में पदार्थों की अवस्थिति को ही प्राप्ति करने हैं। पेष्टी गवस्था में सा. गन्ध और स्पर्श का उनको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियों के साथ अपने-अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट ही है। प्राब्द का भी धोत्र इन्द्रिय के साथ अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है। उसी प्रकार रूप का चक्ष के साथ अभिमुख रूप से अपने देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है क्योंकि रूप को ग्रहण करने वाले चक्षु के साथ रूप का प्राप्यकारीपना नहीं वनता है। इस प्रकार अनिःसृत और अनुक्त पदार्थों के अवग्रहादिक सिद्ध हो जाते हैं।'
शङ्का-अवग्रह निर्णय रूप है अथवा अनिर्णय रूप है ? प्रथम पक्ष में अर्थात् निर्णय रूप स्वीकार करने पर उसका अवाय में अन्तर्भाव होता है, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि वैसा होने पर उसके पीछे संशय की उत्पत्ति के प्रभाव का प्रसंग आएगा तथा निर्णय के विपर्यय व अनध्यवसाय होने का विरोध भी है। अनिर्णय स्वरूप मानने पर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि बसा होने पर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर्भाव होगा?
समाधान नहीं, क्योंकि विशदावग्रह और अविशदावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का है। उनमें विशद अवग्रह निर्णय रूप होता हुअा अनियम से ईहा, अवाय सौर धारणा ज्ञान की उत्पत्ति का कारग है। यह निर्णय रूप होकर भी अवाय संज्ञावाला नहीं हो सकता, क्योंकि ईहा प्रत्यय के पश्चात् होने वाले निर्णय की अवाय संज्ञा है।
नमें भाषा आयु व रूपादि विशेषों को ग्रहण न करके व्यवहार के कारगभूत पुरुषमात्र के मत्वादि बिशेषों को ग्रहण करने वाला तथा अनियम से जो ईहा आदि की उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है। यह अविशदावग्रह दर्शन में अन्तर्भूत नहीं है, क्योंकि वह विषम और विषयी के सम्बन्ध काल में होने वाला है।
शङ्का-अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय स्वरूप है ?
समाधान—ोसा नहीं है, क्योंकि वह कुछ विशेषों के अध्यवसाय से सहित है। उक्त ज्ञान विपर्यय रवरूप होने से भी प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें बिपरीतता नहीं पाई जाती। यदि कहा जाय कि वह च कि विपर्यय ज्ञान का उत्पादक है अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे विपर्यय ज्ञान के उत्पन्न होने का कोई नियम नहीं है। संशय का हेतु होने से भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संगय से प्रमाणभूत निर्णय प्रत्यय की उत्तत्ति होने से उक्त हेतु व्यभिचारी भी है। संगय रूप होने से भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि स्थाणु और पुरुष आदि रूप दो विषयों में प्रवर्तमान व चलस्वभाव संशय की अचल व एक पदार्थ को विषय करने वाले अविशदावग्रह के साथ एकता का विरोध है। इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंश के प्रति अविशदादग्रह को प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहार के योग्य है।
-- --- - १. धवल पु. १ पृ. ३५७। २. पबल पु. ६.१४४-१४६ ।