Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३०६
ज्ञानमागंगा/३८१
ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक है। इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य क्षेत्र में पदार्थ का अवस्थित होना अभिमुख कहलाता है। स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श में नियमित है; रस, गंध, वर्ण व शब्द में नियमित नहीं है। अर्थात् स्पर्शनइन्द्रिय का विषय स्पर्शनियत है। इसी प्रकार रसना इन्द्रिय का विषय रसनियत है । प्राण इन्द्रिय का विषय गन्ध नियत है। चक्षुइन्द्रिय का विषय वर्ण व प्राकार आदि नियत है। श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द नियत है ।' प्रत्येक इन्द्रिय अपने-योग्य क्षेत्र में स्थित (अभिमुख) अपने नियत विषय को ही जानती है।
___ अभिमुख और नियमित अर्थ के अवबोध को अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल, वर्तमान और अनन्तरित अर्थात् व्यवधान रहित अर्थ अभिमुख है। अथवा इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थ का नाम अभिमुख है। चक्षरिन्द्रिय में रूप नियमित है, श्रोत्रेन्द्रिय में शब्द, घ्राणेन्द्रिय में गन्ध, जिह्वन्द्रिय में रस, स्पर्शनेन्द्रिय में स्पर्श और नोइन्द्रिय (मन) में दृष्ट, ध्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं । अथवा, अन्यत्र उनकी प्रवृत्ति न होने से उसका नियम है । अर्थ, इन्द्रिय, आलोक और उपयोग के द्वारा ही रूपज्ञान की उत्पत्ति होती है। अर्थ, इन्द्रिय और उपयोग के द्वारा ही रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शज्ञान की उत्पत्ति होती है। दृष्ट, श्रत और गनुभूत अर्थ तथा मन के द्वारा नोइन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति होती है। यह यहाँ नियम है। इस प्रकार के अभिमूख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है वह आभिनिबोध है । प्राभिनिबोध ही ग्राभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। नियम के अनुसार अभिमुख अथों का जो ज्ञान होता है वह पाभिनिवोधिक ज्ञान है। यह ज्ञान परोक्ष है।
अक्ष का अर्थ आत्मा है । अक्ष से जो इतर वह पर है। आत्मा से इतर कारणों के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्षज्ञान है। उपात्त और अनुपात्त इतर कारणों की प्रधानता से जो ज्ञान होता है वह परोक्ष है। यहाँ 'उपात्त' गाब्द से इन्द्रियाँ व मन तथा 'अनुपात्त' शब्द से प्रकाश व उपदे शादिक का ग्रहण किया गया है। इनकी प्रधानता से होने वाला जान परोक्ष है। जिस प्रकार गमनशक्ति से युक्त होते हुए भी स्वयं गमन करने में असमर्थ व्यक्ति का लाठी आदि पालम्बन को प्रधानता से गमन होता है, उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज स्वभावी; परन्तु स्वयं पदार्थ को ग्रहण करने में असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है।
मति (प्राभिनिबोधिक) ज्ञान चार प्रकार का है-अवग्रह. ईहा, अवाय और धारणा !' अवग्रह आदि चारों ही ज्ञानों की सर्वत्र कम से उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि उस प्रकार की व्यवस्था नहीं पाई जाती है। इसलिए कहीं तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है, कहीं अवग्रह और ईहा ये दो या अवग्रह और धारणा ये दो होते हैं : कहीं पर अवग्रह, ईहा और अवाय ये तीन भी होते हैं, और कहीं पर अन्नग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ही होते हैं।' अवग्रह आदि का स्वरूप स्वयं - - ...१. "म्बक-म्बकेन्द्रियेषु नियमितं ।"(धवल पु. ६ पृ. १६०। २. धवल पृ. ६ पृ. १५ । ३. धवल पु. १३ पृ. २०६। ४. प्रवल पु.६ पृ. १५। ५. धवल पु. १३ पृ. २०१-२१०। ६. धवल पु. ६ पृ. १६ । ७. धवल पु. १३ पृ. २१०। ८. 'प्रक्ष प्रात्मा ।' [धवल पु. ६ पृ. १४३] । ६. धवल पु. ६ पृ. १४३ । १०. बबल पू. ६ पृ. १८ । “तदो कहि पि पोग्ग हो चेय । कहि पि योग्ग हो घारगा य दो चचेय । कहि पि योगगहा ईहा य" टिपण नं. २।।