Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३०३-३०४
ज्ञानमार्गा/३७६
सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम की तरह जात्यन्तर रूप अवस्था को प्राप्त है। अतः एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है । '
यथावस्थित प्रतिभासित पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न बोध ज्ञान है। न्यूनता यदि दोषों से युक्त यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न बोध अज्ञान है । जात्यन्तर रूप कारण से उत्पन्न ज्ञानजात्यन्तर ज्ञान है। इसी का नाम मिश्रज्ञान है।
मनः पर्ययज्ञान प्रमत्तसंगत से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्य गुणस्थान तक होता है । " क्योंकि मन:पर्ययज्ञान के स्वामी संयमी होते हैं ।
शङ्का - देशचारित्र आदि नीचे के गुणस्थानवर्ती जीवों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है? समाधान- नहीं होता, क्योंकि संयमासंयम और असंयम के साथ मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध याता है ।
शङ्का - यदि संयम मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तो समस्त संयमियों के मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ?
समाधान- यदि मात्र संयम ही मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता तो ऐसा भी होता । किन्तु मन:पर्ययज्ञान की उत्पत्ति में अन्य भी कारण हैं, इसलिए उन दूसरे हेतुओंों के न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसलिए गाथा में 'संजमविसेससहिए' दिया है।
शङ्का - वे दूसरे विशेष कारण कौनसे हैं ?
समाधान- विशेष जाति के द्रव्य, विशिष्ट क्षेत्र व विशिष्ट काल आदि अन्य कारण हैं, जिनके बिना सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता । *
स्वयं ग्रन्थकार मन:पर्ययज्ञान के भेद श्रादि का विशेष कथन गाथा ४३५ से ४५९ तक
करेंगे |
तीनों भज्ञानों के लक्षण
विस- जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवदेस- करो
जा खलु पवत्तद्द मदी- अण्णारणं ति खं बेंति ॥ ३०३ ॥ *
भारहरामायाविव एसा ।
प्राभीयमासुरव तुच्छा प्रसाहरणीया सुयश्रण्णाांति णं बेंति ।। ३०४ ॥ *
१. धवल पू. १ सूत्र ११६ टीका पृ. ३६३-३६४ । २. धवल पु. १ सूत्र ११६ की टीका पृ. ३६४ ॥ ३. "मरणपज्जवशाणी पमत्तमंजन -पहूडि जान खीलकसाय- बीदराग छदुमत्या ति ।। १२१|| " [ धवल पु. १ पृ. ३६६ ] ४. धवल पु १ सूत्र १२१ की टीका पू. ३६६-३६७ । ५. बबल पु. १ पृ. ३५८ मा. १७६; प्रा. पं. संग्रह पु. २५ गा. ११८ व पृ. ५७६ गा. १०७ । ६. धवल पु. १ पृ. ३५८ गा. १८० प्रा. पं सं. पू. २६ गा. ११६ व पृ. ५७६ मा १०५