Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३७५/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०२
उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबली का जग सो पाया हो पाता है, इसलिए यहाँ पर दोनों प्रज्ञान होते हैं ।
शाडूा- एकेन्द्रियों में श्रोत्रइन्द्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता इसलिए श्रुतप्रज्ञान भी नहीं हो सकता?
समाघान—यह कोई एकान्त नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहते हैं। रूप आदि लिंग से जो लिंगी का ज्ञान होता है वह भी श्रुतज्ञान है; जैसे वनस्पतिकायिक की हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है ।
मिश्रज्ञान का कारण और मनःपर्ययज्ञान का स्वामी मिस्सुक्ये सम्मिस्सं अण्णारतियेण गारगतियमेव ।
संजमविसेससहिए मणपज्जवरणारणमुद्दिढ ॥३०२॥ गाथार्य-सम्बग्मिथ्यात्व मिश्रप्रकृति के उदय से तीन अज्ञान और तीन ज्ञान का परस्पर मिश्रण होने वाले तीन मिश्रज्ञान होते हैं। जिनके विशिष्ट संयम होता है, उन्हीं के मनःपर्यय ज्ञान होता है ।।३०२॥
विशेषार्थ दर्शनमोहनीय कर्म की मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृति के उदय से सम्यग्मिथ्यादृष्टि तीसरा गुणस्थान होता है। उस सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में प्रादि के तीनों ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) तीनों प्रज्ञान (मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंग ज्ञान) से मिश्रित होते हैं। मतिज्ञान से मत्यज्ञान मिथित होता है, श्रुतज्ञान श्रुताज्ञान से मिश्रित होता है, अवधिज्ञान विभंगज्ञान से मिश्रित होता है। प्रर्थात् तीनों ही ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं । 3
शङ्का-यथार्थ श्रद्धान से अनुबिद्ध अवगम को ज्ञान कहते हैं और अयथार्थ श्रद्धा से अनुविद्ध अवगम अज्ञान है। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न जोवों के आधार से रहने वाले ज्ञान-अज्ञान का मिश्रण नहीं बन सकता?
समाधान - यह कहना सत्य है, क्योंकि यह इष्ट है, किन्तु यहाँ सम्यग्मिथ्याष्टि गुणस्थान में यह अर्थग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्व तो हो नहीं सकती, क्योंकि उससे अनन्तगुरगे होन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीत अभिनिवेश को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं पाई जाती है और न वह सम्यवत्व प्रकृति रूप ही है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति से अनन्तगुणी अधिक शक्ति वाले सम्यग्मिथ्यात्व का यथार्थ श्रद्धा के साथ साहचर्य सम्बन्ध का विरोध है। इसलिए जात्यन्तर होने से सम्पग्मिथ्यात्व जात्यन्तररूप परिणामों का ही उत्पादक है। अतः सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न हुए परिणामों से युक्त ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि उस ज्ञान में यथार्थ श्रद्धा का अन्वय नहीं पाया जाता है। उसको अज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह अयथार्थ श्रद्धा के साथ सम्पर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान १. घवल पु. १ सूत्र ११६ की टोका। २. धवल पु. १ सूत्र ११६ की टीका । ३. "मम्मामिच्छाइट्ठि-हाणे तिण्णि विणापाणि अण्णाणण मिस्साणि । मिणिबोहिया मदिप्रपाणेण मिस्सयं, सुवणारा सूद-प्रणागोगा मिसयं सोहिमगाणं विभंगणाणे मिस्सयं । तिणि वि गारपारिग प्रणाणेए मिस्सारण वा इदि ॥११॥ [श्रवल पु. १ पृ. ३६३] ।