Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३८० गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३०५-२०६
विवरीयमोहिणाणं खनोवसमियं च कम्मबीजं च ।
वेभंगोत्ति पउपचइ समतरणारगीरण समपम्हि ॥३०५॥' गाथार्थ परोपदेश के बिना जो विष, यंत्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसको ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते हैं ।।३०३॥ “पाभीयमासुरक्खा" चौरशास्त्र हिंसाशास्त्र अथवा "पाभीमासुरक्खयं" कालासुर कृत वेद हिंसा शास्त्र, महाभारत, रामायण आदि के तुच्छ और परमार्थ शून्य होने से, साधन करने के अयोग्य उपदेशों को ऋषिगण श्रुताज्ञान कहते हैं ।। ३०४॥ जो क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मिथ्यात्व सहित होने से विपरीत स्वरूप है और नवीन कर्म का बीज है, वह सम्पूर्णज्ञानियों के द्वारा आगम में कुअवधि या विभंग ज्ञान कहा गया है ॥३०॥
विशेषार्थ—जिसके खाने से या सूधने आदि से मरण हो जाय वह विष है, जिसमें पशु, पक्षी, मछली प्रादि स्थलचर, नभचर, जलचर जीव पकड़े जायें वह जाल है। जिसमें पशु-पक्षी आदि बन्द रखे जावें वह पिजरा है । रस्सी (जेवरी) आदि जिससे जीव बाँधे जावें वह बन्ध है। इस प्रकार जीवों के मारने व बाँधने आदि के कारणरूप यंत्र आदि की रचना, जो परोपदेश के बिना की जाती है, वह मत्यज्ञान है । यदि परोपदेशपूर्वक इन कार्यों को करे तो श्रुताज्ञान है। इस प्रकार परोपदेश बिना हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह प्रादि पाप के कारणभूत पदार्थों में की ऊहापोह करना, रचना करना इत्यादि कुज्ञान है। दूसरों को भय उपजाने वाले ऐसे हिंसा, चोरी आदि का कथन करने वाले शास्त्र, हनुमान आदि को वानर कहने वाले और रावण प्रादिको राक्षस कहने वाले शास्त्र. एक शीलवती भार्या को पंचभर्तारी कहने वाले शास्त्र परमार्थशन्य शास्त्र हैं। ऐसे शास्त्रों को श्रुत-अज्ञान कहा गया है।
विशिष्ट ज्ञान अर्थात् अवधिज्ञान का भंग (विपरीत) रूप परिणमन विभंगज्ञान है। वस्तु का अयथार्थ या विरुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान होना विभंगज्ञान है। अवधिज्ञानावरण कर्म केक्ष योपशम से जो ज्ञान विपरीत-अभिनिवेश सहित होता है वह विभंगज्ञान है। मिथ्यात्व के कारण वस्तु का अन्यथा ज्ञान होता है। यह विभंगज्ञान अयथार्थ होने से कर्मबन्ध का ही कारण है. संवर-निर्जरा का कारण नहीं है।
नौ गाथाघों द्वारा मतिज्ञान का कथन अहिमुह-णियमियबोहणमाभिरिणबोहियरिणदिइंदियजम् ।
अवगह-ईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०॥ गाथार्थ - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) को सहायता से अभिमुख और नियमित पदार्थ का ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है। प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ऐ चार भेद हैं ।।३०६।।
विशेषार्थ-- मतिज्ञान का दूसरा नाम 'ग्राभिनिबोधिक' भी है। पाभि-नि+बोधक है। 'ग्राभि' अर्थात अभिमुख ; 'नि' अर्थात् नियमित पदार्थ का पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो बोध=
पम् ।
१. धवल पू.१ पृ. ३५६ गा.१८१: प्रा. पं. सं पृ. २६ गा. १२० ब पृ. ५७६ गा, १०१। २. यह गाथा धवल पु. १ पृ. ३५६ मा. १८२ और प्रा.पं. संग्रह पृ.२६ गा. १२२ है किन्तु उत्तराधं "बहु-प्रोग्गहाइणा लग्नु कय-छत्तीसति-मय भेयं ।'' इम प्रकार है।