Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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माथा ३०१
ज्ञानमार्गगा/३७७
शङ्का-- पहले इन्द्रिय मार्गणा और योग मार्गणा में सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से, उन्हीं स्पर्धकों के सत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशमिक भाव की प्ररूपणा की गई है। किन्तु यहाँ पर सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशामिक भाव कहा गया है। इस प्रकार स्ववचन विरोध क्यों नहीं होता? '
समाधान --- नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वधाती स्पर्धकों के उदयक्षय से संयुक्त देशघाती स्पर्धकों के उदय से ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट हो तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान व श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा; चूकि स्पर्शनेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय, मतिज्ञान तथा श्रतज्ञान इनके प्रावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का सब काल में प्रभाव है । अर्थात् उक्त प्राबरणों के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय कभी होता ही नहीं है। इसमें कोई स्ववचनविरोध भी नहीं है, क्योंकि इन्द्रियमार्गणा और योगमार्गरणा में अन्य प्राचार्यों के व्याख्यान क्रम का ज्ञान कराने के लिए वहाँ वैसा प्ररूपण किया गया है। जो जिससे नियमत: उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करने वाला कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकों के उदय के समान सर्वधाती स्पर्धकों के उदयक्षय नियम से अपने-अपने ज्ञान के उत्पादक नहीं होते, क्योंकि क्षीणकषाय के अन्तिम समय में अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते ।'
शता-जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ? केवलज्ञान क्षायिक भी नहीं है, क्योंकि क्षय तो प्रभाव को कहते हैं और प्रभाव को कारण मानने में विरोध प्राता है।
समाधान - क्षायिक लब्धि से जीव केवलज्ञानी होता है। केवलज्ञानावरण का क्षय तुच्छ अर्थात् अभावरूप मात्र है, इसलिए वह कोई कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञानावरण के बन्ध, सत्व और उदय के अभाव सहित तथा अनन्तवीर्य, वैराग्य सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणों से युक्त जीवद्रव्य को तुच्छ मानने में विरोध आता है। किसी भाव को अभाबरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और प्रभाव स्व भाव से ही एक दूसरे को सर्वात्म
प से आलिंगन करके स्थित पाये जाते हैं। जो वात पाई जाती है उसमें विरोध नहीं रहता, क्योंकि विरोध का विषय अनुपलब्धि है और इसलिए जहाँ जिस बात की उपलब्धि होती है, उसमें फिर विरोध का अस्तित्व मानने में ही विरोध आता है । ५
शङ्का -अनन्तानुबन्धी के उदय से भी मिथ्याज्ञान होता है, ऐसा क्यों कहा गया है ? मात्र मिथ्यात्व बाहना पर्याप्त था, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय से ही विपरीत अभिनिवेश होता है।
समाधान - सामादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होते हुए भी मिथ्याज्ञान (प्रज्ञान) होता है। इस बात को वतलाने के लिए अनन्तानुबन्धी का उदय भी अज्ञान में कारण है। विपरीत अभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी इन दोनों के निमित्त से
१. धवल पु. ७ ८६-७ । २. धवल पु. ७ पृ. ८८ । ३. 'केवलरगाणीणाम कथं भवदि ॥४६।। ण खइयं पि, खनो रणाम प्रभावो तम्स कारणत्तविहादो।" [धवल पु.७ पृ.८८ 480] । ४. "खड्याए लगीए ।। ४७||" व टीका [धवल पु. ७ पृ. ६०-६१] ।