Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३००-३०१
ज्ञानमार्गणा/३७५
___ज्ञान के भेद, मिथ्याज्ञान का कारण और उसका स्वामी पंचेव होंति वारणा मदिसुदमोहीमणं च केवलयं । खयउयसमिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं ॥३०॥ अण्णागतियं होदि हुसण्णाणतियं ख मिच्छ अरणउदये।
गयरि विभंग गाणं चिदियसणिपुण्णेव ।।३०१॥' ___गाथार्थ - ज्ञान पाँच प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान; मनःपर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान । इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और केवलज्ञान क्षायिक है ।।३००। आदि के तीनों समीचीन ज्ञान, मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर अज्ञान हो जाते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभंग ज्ञान संज्ञो-पंचेन्द्रिय पर्याप्त के ही होता है ।।३०१॥
विशेषार्थ-ज्ञान आठ प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मति ज्ञान, श्रुतकुजान और विभंगज्ञान । इनमें से आदि के पाँच ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं और अन्त के तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं।
णाणं अविरप्पं मविसुदिपोहो अगाणणाणारिण ।
मणपज्जयकेवलमवि पच्चरखपरोक्ख मेयं च ॥५॥ शङ्खा ---अज्ञान कहने पर क्या ज्ञान का अभाव ग्रहण किया गया है ? ज्ञान के अभाव में जीव के अभाव का प्रसंग पाता है, क्योंकि ज्ञान जीव का लक्षण है। यदि अज्ञान कहने पर ज्ञान का अभाव न माना जाय तो फिर प्रतिषेध के फलाभाव का प्रसंग पाता है ?
समाधान-प्रथम पक्ष में कहे गये दोष की प्रस्तुत कथन में संभावना नहीं है, क्योंकि यहाँ पर प्रसज्य प्रतिषेध अर्थात् अभाव मात्र से प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्ष में कहा गया दोष भी नहीं पाता, क्योंकि यहां जो अज्ञान शब्द से ज्ञान का प्रतिषेध किया गया है, इराकी आत्मा को छोड़ अस्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्यों में स्व-पर विवेक के प्रभावरूप सफलता पायी जाती है। ग्रथोत स्व-पर विवेक से रहित जो पदार्थज्ञान होता है उसे ही यहाँ अज्ञान कहा है ।
शङ्का-तो यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योंकि विधि और प्रतिषेध भाव से मिथ्याष्टि ज्ञान और सम्यग्दृष्टि ज्ञान में कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान--यहाँ अन्य पदार्थों में परत्वबुद्धि के अतिरिक्त भाव अर्थात् पदार्थ सामान्य का अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया जिससे सम्यग्दृष्टि ज्ञान का भी प्रतिषध हो जाय । किन्तु ज्ञातवस्तु में बिपरीत श्रद्धा उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व मनन्तानुबन्धी के उदय के बल मे जहां पर जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है, वह अज्ञान है, क्योंकि उस में ज्ञान का फल नहीं पाया जाता।
१. “मतिश्रुतावधिमनःपर्य के बलानि ज्ञानम् ।" [तस्वार्थसूत्र १/6]। २. "मतिश्रतावश्यो विपर्ययएन ।' [त.मू. १/३१] । ३. बृहद् द्रव्यसंग्रह गा. ५। ४. घवान पु. ७ पृ. ८४-८५ ।