Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३७४/गो. सा. जोत्रकाण्ड
गाथा २६६
का उत्पाद होता है इसलिए गाथा में द्रव्य को त्रैकालवर्ती कहा है। ऐसे बहुत प्रकार के द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायें जिसके द्वारा जानी जाती है वह ज्ञान है। जीव और अजीब दो प्रकार के द्रव्य हैं। पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य के भेद से अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है। ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि जीवद्रव्य के गुण हैं। स्पर्श रस गन्ध वर्ण आदि युद्गल द्रव्य के गुण हैं। संसारी मुक्त अथवा स स्थावर आदि जीवद्रव्य की पर्याय हैं। मण और स्कन्ध आदि पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं
वह ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दो प्रकार का है। --प्रत्यक्ष-जो अक्ष कहिये अात्मा के आश्रित हो वह मुख्य प्रत्यक्ष ज्ञान है ।' 'क्ष' अर्थात् प्रात्मा, उससे “पर" (अन्य)जो इन्द्रियाँ उनके द्वारा अभिवर्द्धन को प्राप्त होने वाला ज्ञान परोक्ष है।
जो ज्ञान अनन्त शुद्ध है, चैतन्य सामान्य के साथ जिसका अनादि सम्बन्ध है, जो एक अक्ष कहिये आत्मा से प्रतिनियत है-जिसको इन्द्रिय प्रादि व प्रकाश आदि की सहायता की श्रावश्यकता नहीं है, जो अनन्त शक्तिशाली होने के कारण अनन्त है, ऐसा वह प्रत्यक्ष ज्ञान समस्त जेयों को जानता है, कोई भी ज्ञेय उस ज्ञान से बाहर नहीं रहा । इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान के पांच विशेषण दिये गये हैं। अर्थात् कि टिगोषणों .प्रक्षा को रगलाया गया है ।
जं परवो विष्णाणं तं तु परोक्खं त्ति भणिवमत्थेसु ।
जवि केवलेण रणावं हदि हि जीवेण पञ्चवं ॥५॥ -जेय पदार्थ सम्बन्धी जो ज्ञान पर के निमित्त या सहायता से होता है, वह ज्ञान परोक्ष है और जो ज्ञान केवल (बिना इन्द्रियादि की सहायता के) आत्मा के द्वारा जानता है बह प्रत्यक्ष जान है ।
अथवा विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। दूसरे ज्ञान के व्यवधान से रहित और विशेषता से होने वाले प्रतिभास को वेशद्य कहते हैं। अविशदस्वरूप वाला जो ज्ञान है वह परोक्ष है।
असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है।" कर्मों के क्षयोपशम आदि, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रियों को व मन की तथा प्रकाश आदि की सहायता की अपेक्षा के बिना ही केवलज्ञान ज्ञेयों को जानता है इसलिये वह असहाय है किन्तु जयों की अपेक्षा रहती है क्योंकि केवल ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है (प्रवचनसार गा. २३) और ज़यों के बिना ज्ञान उत्पन्न हो नहीं सकता। इसलिए अर्थ (जयों) की सहायता की अपेक्षा रहती है ।
१. "प्रक्षमात्मानं प्रत्याश्रित प्रत्यक्षमिति मुख्य प्रत्यक्षम्" [प्रमेयरत्नमाला पृ. ४३] २. "अक्ष प्रात्मा तस्मात् परावृत्तं परोक्षम् । अथवा पररिन्द्रियादिभिक्ष्यते सिंच्यतेऽभिवईत इति परोक्षम् ।” [प्रमेयरत्नमाला पृ.४३] । ३. प्रवचनसार माथा ५४ श्री अमृत चन्द्रावार्यकृत टीका। .प्रवचनसार । ५. विशदं प्रत्यक्षम ||१|| प्रतोत्यन्त राब्यवघानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासन बैशम् ।।२/४ प. मु.।। परोक्षामितरत् ।।३/१।। परीक्षामुख)। ६. "केवलमसहाय” [जयधवल पु. १ पृ. २१] | "प्रात्मार्थव्यतिरिक्त सहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवल मसहायम् ।" जयबवल १४२३]"। ८. "साणं ऐयष्पमासा मुठ्ठि ।।" [प्रवचनसार गाथा २१] । ६. "णेयेण विणा कहं गाणं।" (स्वामिकार्तिकेयानृप्रेक्षा गाथा २४७] ।