Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३७२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६६
( श्रीनाग हस्ती ) उपदेश अनुसार कालों का परस्पर विशेष अन्तर्मुहूर्त है । ग्रन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकार का है- संख्यात मावलीप्रमारण, लावली के संख्यातवेंभाग प्रमाण तथा ग्रावली के प्रसंख्यातवेंभाग प्रमाण । यहाँ पर आवली के असंख्यातर्वेभाग प्रमाण परस्पर कपायों के कालों का विशेष है, क्योंकि पूर्वाचार्यो का सम्प्रदाय उसी प्रकार पाया जाता है। इस प्रकार प्रोध से तिर्यंचगति और मनुष्य गति की प्रधानता से अल्पबहुत्व कहा गया है, क्योंकि मनुष्य व तिर्यंचों के अतिरिक्त अन्य गतियों में मान का काल सबसे स्तोक नहीं होता ।"
ओघ से लोभ, माया, क्रोध, मान इस परिपाटी से असंख्यात परिवर्तनबारों के हो जाने पर एक बार लोभकषाय का परिवर्तनबार अधिक होता है। इस प्रकार लोभ सम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनबारों के अतिरिक्त हो जाने पर सम्बन्धी नारों से वाया परिवर्तनबार प्रतिरिक्त होता है । इस प्रकार माया सम्बन्धी प्रसंख्यात परिवर्तनबारों के अतिरिक्त हो जाने के बाद मान सम्बन्धी परिवर्तनबारों से क्रोध सम्बन्धी परिवर्तनबार अतिरिक्त अर्थात् अधिक होते हैं । यह प्ररूपणा ओध से की गई है । उसमें भी तियंचगति और मनुष्यगति में श्री प्ररूपणा से प्रदेश प्ररूपणा में कोई भेद नहीं है अतः यह कहा गया है कि इसी प्रकार तियंचगति और मनुष्यगति में जानना चाहिए।"
माथा का काल को
चारों कषाय वाले मनुष्य व तिर्यंचों की संख्या परस्पर समान नहीं है, क्योंकि चारों कषायों का काल समान नहीं है। तिर्यंच और मनुष्यों में मान का काल सबसे स्तोक है। क्रोध का काल मान के काल से विशेष अधिक है। आवली के असंख्यातवें भाग से विशेष अधिक है। के काल से विशेष अधिक है। आवली के असंख्यातवें भाग से विशेष अधिक है । लोभ की काल माया के काल से विशेष अधिक है। आवली का असंख्यातवां भाग विशेष अधिक है। इस प्रकार कालों के विसर रहने पर जिनका निर्गम और प्रवेश समान है और सन्तान की अपेक्षा गंगानदी के प्रवाह के समान जो ग्रवस्थित हैं, ऐसी वहां स्थित उन राशियों की सदृशता नहीं बन सकती। चारों कषायों के कालों का योग करके उसका चारों कषाय वाली अपनी-अपनी राशि में भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसकी चार प्रतिराशियाँ करके मानादि कषायों के कालों से परिपाटी क्रम से गुणित करने पर अपनी-अपनी राशियाँ होती हैं । 3
इस प्रकार गोम्मटणार जीवकाण्ड में कषायमार्गरणा नाम का ग्यारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।
१२. ज्ञानमार्गणाधिकार
ज्ञान का निरुक्तिसिद्ध सामान्य लक्षण
जागइ तिकालविसए बव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे |
पच्चवखं च परोवस्वं श्रणेण गाणेति णं बेंति ।।२६६||
गाथार्थ - जिसके द्वारा निकालविषयक द्रव्य और बहुभेद सहित उनके गुण तथा उनकी
१. ज. घ. पु. १२ प्र. १७-१८ । २. कषायपाहुत्त पृ. ५६६-५७० सूत्र १०७ ११० १३. धवल पु. ३ पृ. ४२५ । ४. यह गाना धवल पु. १ में गाथा नं. ६१ पृ. १४४ पर है तथा प्रा.पं.सं. पू. २५ मा. ११७ व प्र. ५७१. १०६ ।