Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २२६
कायमार्गगा/३७१
अर्थात मानकषाय के परिवर्तन बारों में लोभ और माया के परिवर्तन नारों के मिला देने से क्रोध के परिवर्तनवार पाजाते हैं।' अंक संदष्टि अनुसार लोभ के परिवर्तनबार ३. माया के परिवर्तनबार संख्यात मुणे अर्थात् ६, मान के परिवर्तन बार संख्यात गुणे अर्थात् १८ । इस १५ में ३ व ६ मिला देने पर (१८ +३+६) २७ क्रोध के परिवर्तनबार प्राप्त होते हैं।
देवगति में लोभ-माया पुनः लोभ-माया इस प्रकार संख्यात हजार बार जाकर तदनन्तर एक मान रूप परिणमन होता है। क्योंकि प्रेयस्वरूप लोभ ओर माया की वहाँ बहलता से उत्पत्ति देखी जाती है इसलिए लोभ और माया के द्वारा संख्यात हजार बारों को प्राप्त होकर सके बाद लोभरूप से परिणमन कर माया के योग्य स्थान में माया का उल्लंघन कर एक वार मान रूप से परिवर्तित होता है। इस प्रकार इस क्रम से पुनः पुनः करने पर मान के परिवर्तितबार भी संख्यात हजार हो जाते हैं। तदनन्तर अन्य प्रकार का परिवर्तन होता है। मान के संख्यात हजार परिवर्तन बारों के होने पर एक बार क्रोवरूप परिवर्तन होता है। प्रत्येक मानकषाय का परिवर्तनबार लोभ और माया के संख्यात हजार परिवर्तन बारों का अधिनाभावी है, इस क्रम से मानकषाय के संख्यात हजार परिवर्तन बारों के हो जाने पर एक बार क्रोधरूप से परिवर्तित होता है। क्योंकि देवगति में अप्रशस्ततर क्रोध परिणाम की प्रायः उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार प्राप्त हुई आयु के अन्तिम समय तक यह परिवर्तनक्रम होता रहता है। अंक संदृष्टि में लोभकषाय के परिवर्तनबार २७, माया के १८, मान के ६ और क्रोध के ३३
देवगति में क्रोधकषाय के परिवर्तनबार सब थोड़े हैं। उनसे मानकषाय के परिवर्तनबार संख्यातगुणे हैं। उनसे मायाकषाय के परिवर्तनबार संख्यातगुरो हैं । उनसे लोभकषाय के परिवर्तनबार विशेष अधिक हैं। विशेष का प्रमाण अपना संख्याताभाग है जो श्रोध और मान के परिवर्तनबार हैं, उतना है। देवगति के कषाय सम्बन्धी काल का योग करके उससे देवों की ओघ जीवराशि को खण्डित करके जो लब्ध प्रावे उसकी चार प्रति राशियाँ करके उन्हें परिपाटी क्रम से उन्हें क्रोधादिक के कालों से गुरिणत करने पर अपनी-अपनी राशियां होती हैं। इसी प्रकार नारकियों में जानना चाहिए।
मनुष्य तथा तिर्यचों में कषाय सहित जीवों का प्रमाण रणरतिरिय लोहमायाकोहो मारणो विदियादिव्य ।
प्रावलिप्रसंखभज्जा समकालं या समासेज्ज ॥१८॥ गाथार्थ-जिस प्रकार द्वीन्द्रिय आदि जीवों की संख्या प्राप्त की है उसी क्रम से मनुष्य व तिर्थचों के लोभ, माया, क्रोध न मान वाले जीवों का प्रमाण पावली के असंख्यातवें भाग क्रम से प्राप्त कर लेना चाहिए। अथवा निज-निज काल का प्राश्रय करके उक्त कषाय वाले जीवों का प्रमाण निकालना चाहिए ।।२६८।।
विशेषार्थ-मोघ से मान का काल सबसे स्तोक है। उससे क्रोध का काल विशेष अधिक है । उससे माया का काल विशेष अधिक है। उससे लोभ का काल विशेष अधिक है। प्रवाहमान
१. जयघवल' पृ. १२ पृ. ३८.४० । २. जयधवल पु. १२ पृ. ३७ । ३. जयश्वल पु. १२ पृ. ३८ । ४. जयधवल पु. १२ पृ. ४०-४१ । ५. धवल पु. ३ पृ. ४२७ ।