Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाघा २९६
ज्ञानमार्गरणा/३७३
अनेक प्रकार की पर्याय प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जानी जाती हैं, वह ज्ञन कहा गया है ॥२६६!!
विशेषार्थ-भूतार्थ (सत् रूप अर्थ) को प्रकाश करने वाला ज्ञान है ।' शङ्का--मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भूतार्थ का प्रकाशक कैसे हो सकता है ?
समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ज्ञात में समानता पाई जाती है ।
शङ्का-यदि दोनों के ज्ञान में समानता पाई जाती है. तो मिथ्यादष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो
सकते हैं?"-यदि दोनों के का
__समाधान-मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। जैसे पुत्रोचित कार्य को नहीं करने वाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है ।
शङ्का-ज्ञान का कार्य क्या है ?
समाधान-तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना ज्ञान का. कार्य है। यह कार्य मिथ्या दृष्टि जीव में नहीं पाया जाता इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है। इच्छा प्रकट करना रुचि है। स्वरूप का निर्णय करना निगम है। निर्णय से गलापमान न होना आता है। अथवा फल दो प्रकार का होता है ---साक्षात् फल और पारम्पर्य फल । वस्तु सम्बन्धी प्रज्ञान की निवृत्ति होना यह ज्ञान का साक्षात् फल है। हान, उपादान और उपेक्षा ये पारम्पर्य फल हैं। हान अर्थात जानने के पश्चात् अनिष्ट या अहितकर वस्तु के परित्याग करने को हान कहते हैं । उपादानजानने के पश्चात् इष्ट या हितकर वस्तु का ग्रहण करना उपावान है। बीतराग दशा में पदार्थ को जानने के पश्चात् उसमें हेय-उपादेय की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, किन्तु उपेक्षा या उदासीनता रूप माध्यस्थ भाव पैदा होता है यह उपेक्षा है।
जो जानता है, वह ज्ञान है अर्थात् साकार उपयोग ज्ञान है अथवा जिसके द्वारा यह आत्मा जानता है, जानता था अथवा जानेगा, ऐसे ज्ञानावरण कर्म के एकदेश क्षय से अथवा सम्पूर्ण ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न हुए आत्मा के परिणाम को ज्ञान कहते हैं ' कर्म-कर्तृ भाव का नाम आकार है, उस प्रकार के साथ जो उपयोग रहता है, उसका नाम साकार है । प्रमाण से पृथक भुत कर्म को आकार कहते हैं । अर्थात् प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय जो प्रतिभासमान होता है, उसे प्राकार कहते हैं।
द्रव्य अनादि अनन्त है । द्रव्यदृष्टि से म तो द्रव्य का नाश होता है और न किसी नवीन द्रव्य
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१. "भूतार्थ प्रकाशकं ज्ञानम्" धिबन पु. १ पृ. १४२] व मूलाचार पृ. २७७] । २. धवल पु. १ पृ. १४२ । 3. धवल पु. १ पृ. ३५३ व ववल पृ. ५ पृ २२४ । ४. भावपाहुङ्ग गा.८२ टोका। ५. श्री पं. हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री कृत 'अनुवादप्रमेयरत्नमाला' पृ. ३००-३०१। ६. धवल पु. १ पृ. ३५३ । ७. "कम्म-कतार. नावो अागारो तेरण आगारेण सह वट्टमारणो उबजोगो सागासे त्तिा' [धवल पु. १३ पृ. २०७] । ८. "पमाणदो, पुषभूदं कम्ममाया ।" [जयधवल पु. १ पृ. ३३१] ।