Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २६० २६४
कषाय मार्गेणा / ३६५
गाथार्थ-स्त्र और पर को तथा दोनों को बाधा देने, बन्धन करने तथा श्रसंयम की निमित्तभूत क्रोध आदि कषाय जिनके नहीं है तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं, वे जीव अकपायी हैं ||२६||
विशेषार्थ - क्रोधादि कषाय निज को कर्मबन्ध को कारण है तथा पर में कषाय उत्पन्न करने की कारण होने से पर को भी बन्ध की काररण है । अथवा निज में कोन आदि कषाय उत्पन्न होने से तथापर में कायोत्पत्ति को कारण होने से निज और पर दोनों को बन्ध करने वाली है। इसी प्रकार कपाय करने वाला स्वयं दुखी होता है, दूसरों को दुःख उत्पन्न करता है अथवा निज और पर दोनों को बाधा उत्पन्न करने वाली कषाय है । कषाय के आवेश में इन्द्रियसंयम और प्रारणी-संयम दोनों संयम नष्ट हो जाते हैं। जिन जीवों में ये क्रोध आदि कपायें नहीं हैं वे कपाय जीव हैं । ये जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्म-मलों से रहित हैं, यह सिद्धों की अपेक्षा कथन है । अथवा जो भावकर्ममल से रहित हैं वे अमल हैं, यह कथन ग्यारहवें प्रादि गुणस्थानों की अपेक्षा है । '
शङ्का - कौन-कौन गुग्गुस्थानवर्ती जीव कषायी होते हैं ?
समाधान- उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतराग स्थ सयोगकेवली और प्रयोगकेवली इन चार गुणस्थानों में कषायरहित जीव होते हैं ।
शङ्का--उपशान्तकषाय गुणस्थान को कषायरहित कैसे कहा ? क्योंकि अनन्त परमाणुरूप द्रव्यकषाय का सद्भाव होने से वह कषाय रहित नहीं हो सकता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कषाय के उदय के अभाव की अपेक्षा उसमें कषायों से रहितपना बन जाता है ।
शक्ति, या व आयुबन्ध की अपेक्षा कपाय के भेद अर्थात् स्थान कोहादिकसायाणं चउचउदसथीस होंति पदसंखा । सत्तीले साम्राजगबंधा बंधगदभेदेहि
॥२६०॥
सिलसेल वेणुमूषिक मिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायाणं सति पडि होंति खियमेण ॥। २६१ || frog feared froहादी छक्कमेण भूमिम्हि । arrat सुक्कोत्तिय धूलिम्मि जलम्मि सुक्केषका ।। २६२ ॥ सेलग किन्हे सुशां खिरयं च य भूगएगबिट्ठाले । रियं इगिबितिनाऊ तिट्ठाणे चारि से सपदे ||२३|| धूलिगछक्कट्ठारो चउराऊतिगदुगं च उवरिल्लं । पश्चदुठाणे देवं देवं सुष्णं च तिद्वाणे ॥ २६४ ॥
१. श्रीमदभचन्द्रसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कूल टीका । २. श्रवल पु. १ पू. ३५२ ।