Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६६/गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा २६०-२६५ सुण्णं दुगइगिठाणे जलम्हि सुण्णं असंखभजिदकमा !
चउचोदसबीसपदा असंखलोगा हु पत्तेयं ॥२६५॥ गाथार्थ --- क्रोधादि चार कषायों के शक्ति की अपेक्षा चार, लेश्याओं की अपेक्षा चौदह, आधुबन्ध की अपेक्षा बोस स्थान होते हैं ।।२६०]। शिलाभेद, पौलस्तम्भ, बाँस की जड़, कृमिराग ये चार क्रमसे क्रोध आदि कषायों की शक्ति की अपेक्षा भेद हैं ॥२६१॥ शिला समान शक्तिभेद में कृष्णा लेश्या, पृथिवी समान कषाय भेद में कृष्ण आदि ऋगसे छहों लेश्याएं, धूलि समान कषायभेद में छहों लेश्यायों से लेकर शुक्ल लेश्या पर्यन्त छह स्थान, जलरेखा समान कषायस्थान में शुक्ल लेश्या का एक स्थान होता है ॥२६२॥ पौलगत कृष्ण लेण्या में शून्य तथा नरकायु बन्ध, पृथिवी समान कषायभेद के दो स्थानों में एक नरकायु का ही बन्ध होता है। उसके पश्चात् तीन स्थानों में क्रमसे एक प्रायु, दो प्रायु और तीन आयु का बन्ध होता है। शेष चार, पाँच व छह लेश्या बाले स्थानों में चारों आयु का बन्ध होता है ।।२६३।। धूलिभेद गत छहों लेश्यावाले स्थानों में क्रम से चार अायु, तीन यायु और दो माथु का बन्ध, उसके आगे पाँच लेश्यावाले और चार लेण्या वाले स्थान में एक देव शायु का बन्ध, तीन लेश्या वाले स्थान में देवायु का बन्ध व शून्य है ॥२६४।। दो लेश्या वाले और एक लेश्या बाले स्थान में शुन्य । जलभेदगत एक लेण्या स्थान में शून्य । इस प्रकार चार, चौदह और बीस स्थान कहे गये हैं। प्रत्येक के असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं ॥२६॥
विशेषार्थ -- सर्वप्रथम कपायों के शक्ति की अपेक्षा चार भेद करने चाहिए। जैसे क्रोध के शिलाभेद, पृथिवीभेद, धूलि (बालुका) भेद, जलभेद; मान के शैलस्तम्भ, अस्थिस्तम्भ, काष्ठ स्तम्भ और बेंत स्तम्भ ; माया के बासमूल की वऋता, मेढ़े के सींग की वक्रता, गोमूत्र वऋता, खुरपा वक्रता, लोभ के चार भेद कृमिगग, चक्रमल, शरीर मल, हरिद्र रंग। इन च र स्थानों के लेश्या की अपेक्षा भेद करने चाहिए। शिलाभेद में एक कृष्ण ही लेश्या है, इसलिए उत्तरस्थान एक है। पृथिवीभेद में छहों लेश्या हैं अतः छह स्थान इस प्रकार हैं-१. कृष्ण लेश्या, २. कृष्ण व नील लेश्या का मिश्चित स्थान, ३. कृष्ण, नील व कापोत लेण्या का मिधित स्थान, ४. कृष्ण, नील, कापोत व पीत लेश्या वा मिथित स्थान, ५, कृष्ण, नील, कापोत, पीत व पद्म लेश्या का मिश्रित स्थान, ६. कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पब और शुक्ल लेश्या का मिथित स्थान. ये छह उत्तरस्थान लेश्या की अपेक्षा पृथिवी शक्ति स्थान के हैं। इसी प्रकार धूलिभेद के छहों लेश्या, पचलेश्या, चारलेश्या, तीन शुभ लेश्या, दो शुभ लेश्या और एक शुक्ल लेण्या की अपेक्षा, मह स्थान जानने चाहिए। जलभेद में शुक्ल लेश्या एक ही स्थान है। लेश्या की अपेक्षा कुल स्थान-शिलाभेद का १, पृथिवीभेद के छह, लिभेद के बह, अलभेद का १ (१-६+६+१) इस प्रकार १४ होते हैं।
प्राथूबन्ध की अपेक्षा शिलाभेद में दो उत्तरोतर स्थान एक प्रबन्ध दूसरा नरकायु का इस प्रकार दो स्थान, पृथिवी भेद में कूल ८ स्थान----१. कृष्णलेल्या नरवायु, २. कृष्णा नील लेश्या नरकायु, ३. कृष्ण नील कापोत मिश्चित लेश्या में १ नरकायु, २. नरकायु तिचायु, ३. नरकायुतिर्यंचायु और मनुष्पायु ये तीन, ४, कृष्ण आदि चार मिश्रित लेश्या में चारयायु का एक स्थान, ५. ऋण प्रादि पाँच मिश्रित लेश्या में चारों आयु का एक बन्धस्थान, ६. छहों मिश्रित लेश्या में चारों आयु का एक बन्प्रस्थान इस प्रकार पृथिवीभेद के छह लेश्या स्थानों में आयुबन्ध के ८ स्थान