Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३३६ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५४-२५५.
विशेषार्थ - तीन पल्यों के प्रथम समय में जो बद्ध नोक है, उसे उन्हीं तीन पत्यों के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकार रूप से निक्षिप्त करता है। जो दूसरे समय में बद्ध नोक प्रदेशा है उसे दूसरे समय से लेकर गोपुच्छाकार रूप से निक्षिप्त करता हुआ तब तक जाता है जब तक तोन पल्यों का द्वि चरम समय है । पुनः नोकर्मस्थिति के अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्ध के चरम व द्विचरम गोपुच्छ को निक्षिप्त करता है, क्योंकि ऊपर प्रायुस्थिति का प्रभाव है । तीसरे समय में बद्ध जो नोकर्म प्रदेशाग्र है उस तीसरे समय से लेकर निक्षिप्त करता हुआ तब तक जाता है जब तक द्विचरम समय प्राप्त होता है । अनन्तर अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्ध के चरम, द्विचरम और त्रिचरम गोपुच्छों को निक्षिप्ल करता है। पुनः इस प्रकार जाकर तीन पत्यों के द्विचरम समय में जो बद्ध नोकर्म प्रदेशाग्र है, उसके प्रथम गोपुच्छ को द्वित्ररम समय में निक्षिप्त करके पुनः कोश में विक्षिप्त करता है। तीन पल्यों के अन्तिम समय में जो बद्ध नोकर्म है उसका पूरा पुंज बनाकर उसे अन्तिम समय में ही निक्षिप्त करता है।'
इस प्रकार तीन पल्य के अन्तिम समय में जो प्रदेशाग्र संचित होता है उसे जोड़ा जाय तो अन्तिम समय में संचित हुए कुलद्रव्य का प्रभारग डेढ़ गुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण होता है ।
इसी प्रकार वैयिक शरीर आदि शेष चारों के विषय में जानना चाहिए इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर, तेजसशरीर और कार्मण शरीर में अवस्थित रूप से ही निषेकरचना होती है, गलितशेष निषेक रचना नहीं होती । अर्थात् प्रहारक शरीर के प्रत्येक समयप्रबद्ध की निषेकरचना अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतने प्रमाण होगी, ( गलितावशेष कालमात्र प्रमाण ही नहीं), तेजस शरीर की निषेकरचना, छ्यासठ सागर के जितने समय हैं, उतने प्रमाण होती है । सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं उनमें सात हजार वर्ष के समय घटाने पर जो शेष रहे तत्प्रमारण कार्मरण शरीर की बन्ध के समय निषेकरचना होती है । प्रतिसमय एकसमयप्रबद्ध मात्र द्रव्य बँधता है, क्योंकि एक समय में बंधने वाले कर्म व नोकर्म द्रव्य की समयप्रवद्ध संज्ञा है । किसी समय प्रबद्ध का प्रथम निषेक, किसी का द्वितीय निषेक, किसी-किसी का तृतीय चतुर्थादि निषेक श्रीर किसी का चरम निषेक, किसी का द्विचरम निषेक, किसी का त्रिचरम आदि निषेक, इन सबके युगपत् एक समय में उदय में आने से सब मिलकर एकसमयप्रबद्ध द्रव्य उदय में आता है ऐसा कहा जाता है। कहा भी है
समयपबद्धपमा होदि तिरिच्छेण चट्टमामि । पडिसमयं बंधुद एक्को समयबद्धो सत्तं समयपबद्ध दिवsaगुणहाणि ताडियं ऊणं । तिको सवदिदम्बे मिलिदे हवे नियमा ।।६४३ |
१६४२ ।।
- विवक्षित वर्तमान समय में एक समय प्रद्ध बँधता है और एक समयबद्ध मात्र द्रव्य उदय में आता है। ऐसा निर्य रूप रचना से जाना जाता है । सत्त्व द्रव्य कुछ कम डेढ़गुणहानि गुणित समयबद्ध प्रमाण है । यह त्रिकोण रचना यंत्र के सब द्रव्य को जोड़ देने से नियम से इतना ही प्राप्त होता है । ६४२-६४३।।
१. लपु १४ पृ. ४०६ -४०७ । २. धवल पु. १४ पृ. ४१५
३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड |